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बदरीनाथ धाम और टिहरी राजपरिवार

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प्रमोद शाह
उत्तराखंड के चार धामों में शामिल बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने का मुहूर्त तय हो गया है। आगामी 30 अप्रैल को सुबह 4 बजकर 30 मिनट पर कपाट खुल जाएंगे। जिसके बाद देश विदेश के श्रद्धालु उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित बदरीनाथ मंदिर में भगवान बदरी विशाल के दर्शन करना शुरू कर देंगे। जिसके मद्देनजर गाडू घड़ा कलश के लिए 18 अप्रैल का मुहूर्त तय हुआ है। दिलचस्प बात ये है कि उत्तराखंड का टिहरी राजपरिवार इस प्रक्रिया की धार्मिक परंपराओं से जुड़ा है।
बदरीनाथ धाम का इतिहास
आदि गुरू शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी के मध्य में बदरीनाथ स्थित नारद कुंड में फेंकी गई विष्णु रूप शालिग्राम की मूर्ति को पुनः बद्रीनाथ मंदिर में स्थापित किया था। इस प्रकार देश के उत्तर हिमालय में स्थित श्री बदरीनाथ धाम के  चार धाम के रूप में मान्यता प्राप्त हुई .जहां  केरल के नंबूदरीपाद ब्राह्मण को पुजारी के रूप में ‘रावल’ नियुक्त किया गया . जिसके बाद इस तीर्थ स्थल पर देश के कोने-कोने से यात्रियों का दर्शनार्थ आवागमन शुरू हो गया.
बदरीनाथ धाम से टिहरी राजपरिवार का सम्बंध
ब्रिटिशकाल में 1815 से पूर्व बदरीनाथ धाम की पूजा अर्चना तथा आर्थिक प्रबंध टिहरी राजा द्वारा स्वयं देखते थे . वह अपने राज्य को बद्रीश चर्या के रूप में ही प्रचारित करते थे .श्री बदरीनाथ धाम के प्रति राजा का यह समर्पण तथा पूर्वज कनक पाल की बद्रीश संवाद परम्परा उन्हें ‘बोंदा-बद्री’ बोलता बद्रीनाथ के रूप में स्थापित करती है . बदरीनाथ धाम 1815 के बाद ब्रिटिश गढ़वाल में आ गया. जिसके चलते राजा का तकनीकी रूप से  यहां प्रबंध करना कठिन हो गया.
ब्रिटिश सरकार ने 1810  के बंगाल रेगुलेटिंग एक्ट से  इस मंदिर की व्यवस्था शुरू की.  लेकिन अत्यधिक दूरी होने के कारण यह प्रबंध प्रभावी नहीं रहा . मंदिर के स्थानीय पुजारियों को  लगातार संकट का सामना करना पड़ता था.  लेकिन टिहरी राजा  मंदिर के पुजारी  रावल और डिमरी संप्रदाय की लगातार मदद करते रहे . भावनात्मक रूप से मंदिर का प्रबंधन टिहरी राज दरबार से संचालित होता रहा .
ब्रिटिश हुकूमत ने 1860 के बाद खुद को धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन से अलग कर लिया था. टिहरी राज दरबार फिर से पुरानी परंपराओं के अनुसार बदरीनाथ  धाम की पूजा व्यवस्था और आर्थिकी का संचालन करने लगे . सुदर्शन शाह के बाद प्रताप शाह ,कीर्ति शाह और नरेंद्र शाह राजा हुए.  जिन्होंने अपनी राजधानियां क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेंद्र नगर में बसाई . लेकिन टिहरी रियासत  बदरीनाथ धाम का धार्मिक एवं आर्थिक प्रबंध लगातार देखती रही.
बदरीनाथ धाम का आर्थिक संकट
हालांकि ट्रेल की 1923 की रिपोर्ट में बदरीनाथ मंदिर को व्यवस्था हेतु कुमाऊं के 226 गांव उधार देने का जिक्र है . लेकिन  जब 1924 में  भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तो धाम में यात्रियों की संख्या बहुत कम हो गई थी. जिसके चलते रावल के भोजन तक का संकट खड़ा हो गया और उन्होंने केरल वापस जाने की धमकी दे दी । तब पंडित घनश्याम डिमरी के नेतृत्व में स्थानीय पंडा समाज ने अंग्रेजों से बदरीनाथ धाम का प्रबंधन टिहरी रियासत को देने की मांग उठाई . फिर राजा ने प्रतिवर्ष ₹5000 की आर्थिक सहायता मंदिर को देना शुरु किया. फिर 1928 में टिहरी में हिंदू एडॉर्मेंट कमेटी गठित करके मंदिर का प्रबंधन हुआ .
पौड़ी के एक्सीलेंसी माल्कम हाल ने आर्थिक तंगी और जन दबाव में 6 सितंबर 1932 को  संयुक्त प्रांत के गवर्नर को एक खत लिखा. जिसमें बदरीनाथ मंदिर का धार्मिक एवं आर्थिक प्रबंधन टिहरी राज दरबार को सुपुर्द करने की मांग का जिक्र था . जिसे स्वीकारते हुए बदरीनाथ धाम का आर्थिक एवं धार्मिक प्रबंधन पूर्ववत् टिहरी के राजा को सौंप दिया गया. लेकिन रिहाइश के सिविल अधिकार राजा को नहीं दिए गए .
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 1948 में बदरीनाथ धाम का प्रबंधन अपने हाथों ले लिया।  लेकिन मंदिर के धार्मिक प्रबंध, पूजा मुहूर्त और रावल की नियुक्ति के संबंध में टिहरी रियासत को प्राप्त अधिकारों को पूर्ववत संरक्षित रहे . फिर  “बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति ” का गठन किया गया. जिसके स्थान पर अब उत्तराखंड सरकार ने ‘चार धाम देवस्थानम प्रबंध बोर्ड’ 2019 अधिनियम बना दिया, लेकिन टिहरी राजपरिवार की परंपराएं बरकरार रखी गई हैं .
ऐसे खुलते हैं बदरीनाथ धाम के कपाट
हर साल बसंत पंचमी को बदरीनाथ मंदिर के कपाट खोलने की प्रक्रिया शुरू होती है. राजपुरोहित  संम्पूर्णानंद जोशी और राम प्रसाद उनियाल नरेंद्र नगर स्थित राजमहल में सरस्वती की पूजा अर्चना करके शुभ मुहूर्त की गणना करते हैं. इसी दिन  बदरीनाथ मंदिर की पूजा अर्चना के लिए ‘गाडू घड़ा कलश’ यानि तिल का तेल निकालने का मुहूर्त भी निकाला जाता है. बद्रीनाथ मंदिर समिति बसंत पंचमी के दिन इस कलश को राजमहल को सौंपती है .
टिहरी की महारानी और रियासत की लगभग सौ सुहागन महिलाएं  सिल बट्टे पर तिल पिस कर तेल निकालती है. जिसे 25.5 किलो के घड़े में भरकर मंदिर समिति को सौंपा दिया जाता है. उसे राजमहल से बदरीनाथ तक 7 दिन में पहुंचाया जाता है . जिसे गाडू घड़ा कलश यात्रा कहते हैं .राजमहल में निकाले गए तिल के तेल से ही बदरीनाथ धाम में दीप प्रज्वलित रहता है. इससे भगवान के विग्रह रूप में लेप भी किया जाता है. इस प्रकार तयशुदा मुहर्त में विधिविधान से पूजा अर्चना करके  बदरीनाथ धाम के कपाट खोले जाते हैं।
ये है रावल की नियुक्ति प्रक्रिया
बदरीनाथ धाम में केरल के नंबूदरीपाद ब्राह्मण को  मुख्य पुजारी के रूप में ‘रावल’ नियुक्त करने की व्यवस्था चली आ रही है.  ईश्वरी नम्बूदरीपाद वर्तमान रावल और  भुवन उनियाल बद्रीनाथ मंदिर के धर्माधिकारी हैं . परंपरागत रूप से टिहरी के राजा रावल के परामर्श से उनके उत्तराधिकारी यानि उपरावल की नियुक्ति करते हैं. धाम के रावल को हटाने का अधिकार राजा के पास निहीत था .इस परंपरा का वर्तमान में भी निर्वाह किया जा रहा है.
राजपरिवार के ज्योतिष उनके प्रतिनिधि उनियाल परिवार के साथ मिलकर बदरीनाथ धाम के कपाट खोलने और बंद करने का मुहूर्त निकालते हैं .
नौटियाल हैं टिहरी राजा के प्रतिनिधि
पहले स्वयं टिहरी के राजा बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के वक्त मौजूद रहते थे.  लेकिन समय के साथ उनकी उपस्थिति कठिन हुई तो चांदपुर गढ़ी के पुरोहित नौटियाल परिवार बतौर प्रतिनिधि शिरकत करने लगे. वर्तमान में नौटी जनपद चमोली के नौटियाल  परिवार में  शशि भूषण नौटियाल, कल्याण प्रसाद नौटियाल और हर्षवर्धन नौटियाल मौजूद हैं. जो बारी-बारी बद्रीनाथ मंदिर के कपाट खोलने की प्रक्रिया के दौरान ना सिर्फ उपस्थित रहते हैं बल्कि धार्मिक प्रबंधों की निगरानी भी करते हैं.
(लेखक उत्तराखंड पुलिस सेवा के अधिकारी हैं)

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