RahulSinghShekhawat
नागरिकता संसोधन अधिनियम (सीएए), एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ ‘शाहीन बाग’ प्रतिरोध का प्रतीक बन गया है। बीते 15 दिसंबर को शुरू हुए आंदोलन की कमान मुस्लिम महिलाओं के हाथों में है। पिछले डेढ़ महीने से प्रदर्शनकारी मयबच्चे कड़क सर्दियों में दिन रात डटी हैं। तिरंगे और संविधान की प्रति के साथ विरोध प्रदर्शन शहर दर शहर बढ़ते जा रहे हैं। कतिपय नेता मंच पर पहुंचे जरूर लेकिन आंदोलन कमोबेश गैर राजनीतिक बना हुआ है। बेशक सड़कों पर लगे मजमें से आमजन को परेशान होगी, लेकिन लोकतंत्र में मजबूत होती आस्था का अहसास होता है। अगर शुरुआती हिंसा को छोड़ दें तो शांतिपूर्ण विरोध चल रहा है। हां, जेएनयू के छात्र शरजील इमाम की एक कथित देशविरोधी टिप्पणी सवालों के घेरे में है।
सीएए कानून बनने के बाद असम समेत पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में जबर्दस्त विरोध, आगजनी और हिंसा हुई थी। उस दौरान कई प्रदर्शनकारियों की मौतें भी हुईं। ना सिर्फ सरकारी सम्पत्ति बल्कि पुलिस कर्मियों को भी भारी नुकसान हुआ। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्र विरोध में उतर गए। उस दौरान जामिया में हुए लाठीचार्ज के विरोध में देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों में भी विरोध की चिंगारी फूट पड़ी।
पार्ट-2 में मोदी-शाह की जोड़ी दृढ़ता के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे पर आगे बढ़ती दिखी। इस कड़ी में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35-ए को प्रभावहीन किया गया। इसके अलावा ट्रिपल तलाक सरीखे बड़ा फैसला लिया गया। उधर सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया। खास बात ये है कि उस दौरान मुस्लिम समाज शांत रहा। लेकिन, सीएए कानून बनते ही प्रतिक्रिया स्वरूप सड़कों पर देशव्यापी विरोध शुरु हो गया। छात्र और युवाओं का बड़ा तबका भी मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरा।
दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तान, बंग्लादेश और अफगानिस्तान में कथित धार्मिक प्रताड़ना के शिकार अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए कानून में संसोधन किया था। जिसमें मुस्लिम छोड़कर हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी धर्म के लोगों को तयशुदा कट ऑफ डेट के आधार पर भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है। भारत के एक गणतंत्र बनने के बाद ये पहला मौका है जबकि किसी सरकार ने धार्मिक आधार पर कोई एक कानून बनाया है। हालांकि, इस अधिनियम में किसी की नागरिकता छीनने का प्रावधान बिल्कुल भी नहीं है।
फिर भी मुस्लिम समाज में आशंका व्याप्त है कि सीएए के बाद अब आगे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानि एनआरसी भी देश भर में बनेगा। नागरिकता के कागजात पूरे नहीं होने पर उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा। जिसका आधार भी खुद गृहमंत्री का संसद में चौड़ा होकर दिया वो बयान है कि ‘एनआरसी होकर रहेगा ये भाजपा के घोषणा पत्र का हिस्सा है’। लेकिन जब सीएए के खिलाफ देशव्यापी हिंसक प्रदर्शन शुरू हुए, तो खुद प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान की रैली में जोर देकर सफाई दी कि अभी एनआरसी का तो कोई जिक्र हुआ ही नहीं, तो उसे लागू करने की बात कहां से आई। उनके साथ कदमताल करते हुए गृहमंत्री भी एक न्यूज एजेंसी को इंटरव्यू देकर प्रधानमंत्री की बात पर यकीन करने की बात कहने पर मजबूर हो गए।
साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार मौजूदा हालात में पहली बार थोड़ी असहज नजर आ रही है। लेकिन केंद्र के स्पष्टीकरण के बावजूद भी मुस्लिम समाज का सीएए और एनआरसी का विरोध बदस्तूर जारी है।अविश्वास का आलम ये है कि उससे जोड़कर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर(एनपीआर) के खिलाफ भी हल्ला बोल शुरू कर दिया है। सवाल ये उठता है कि क्या मोदी-शाह की जोड़ी को प्रतिक्रिया के इस स्वरूप का अहसास नहीं था या फिर होमवर्क की कमी रही। कहीं ऐसा तो नहीं कि पूर्ववर्ती फैसलों से बढ़े उत्साह में यह ध्रुवीकरण की जल्दबाजी में एक इरादतन कवायद थी। इसे दबाव कहें या कुछ और, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी सफाई देने के लिए नहीं जानी जाती।
गृहमंत्री अमित शाह ने दिल्ली की चुनावी सभा में कहा कि ‘इतने गुस्से में बटन दबाना की उसके करंट से लोग शाहीन बाग से उठकर चले जाएं’। केंद्रीय राज्य राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर भाषाई मर्यादा को ताक पर रखकर, सीएए के समर्थन में कहते हैं कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो …को’। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि औरतें सड़कों पर धरने पर बैठी हैं और आदमी घर में रजाई ओढ़कर पड़े हैं। वहीं, केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद शाहीनबाग प्रतिरोध को पाकिस्तान परस्त ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ समर्थित आंदोलन करार दिया है। जिससे साफ है कि फिलहाल भाजपा अडिग है। लेकिन आंदोलन खत्म करने के लिए कारवाई करने से हिचक रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि दिल्ली चुनावों का इंतजार है।
वैसे विपक्ष का विरोध छोड़िए खुद मोदी सरकार के अंदर असहमति दिखती है। संसद में कैब को पारित कराने में सहयोग कराने वाले जनता दल (यूनाइटेड), और शिरोमणि अकाली दल कह रहे हैं कि वो एनआरसी को लागू नहीं करेंगे। इतना ही नहीं, असम में सीएए को लेकर खुद सत्ताधारी भाजपा में राज्य स्तर पर विरोध है। सरकार में शामिल असम गण परिषद ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की बात कही। गौरतलब है कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते, बांग्लादेशी घुसपैठियों को तयशुदा कट ऑफ डेट के अनुसार, वापस भेजने को 15 अगस्त 1985 में ‘असम समझौता’ हुआ था। उस पर अमल तो नहीं हो सका लेकिन अब घुसपैठियों में हिन्दू-मुस्लिम का भेद करने का रास्ता बना दिया गया है। जिसके खिलाफ असम मूल के लोगों में गुस्सा है
गौरतलब है कि बंग्लादेश बनने के बाद सीमावर्ती राज्य असम घुसपैठ से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। जहां एनआरसी प्रक्रिया में 19 लाख घुसपैठियों की तस्दीक हुई। जिनमें मुसलमानों की तादाद सिर्फ पांच लाख थी और बाकी सब हिंदू हैं। दरअसल, इस आंकड़े ने ही नागरिकता संसोधन अधिनियम की जमीन तैयार कर दी। मोदी सरकार ने कथित रूप से प्रताड़ना के शिकार शरणार्थी हिंदुओं को नागरिकता देकर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर तो नया ‘रिफ्यूजी- वोटबैंक’ तैयार होगा, वहीं दूसरी ओर बहुमत तय करने वाली ‘हिंदी-बेल्ट’ में हिंदुओं का ध्रुवीकरण तेज होगा।
वैसे नागरिकता संसोधन अधिनियम का देशव्यापी विरोध सिर्फ सड़कों तक ही सीमित नहीं है। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक सौ से ज्यादा याचिकाएं दाखिल हुईं। साथ ही, चार राज्यों की विधानसभाओं में नागरिकता संसोधन के खिलाफ प्रस्ताव पारित हुए हैं। जिनमें कांग्रेस शासित राजस्थान एवं पंजाब, तृणमूल कांग्रेस के पश्चिम बंगाल और लेफ्ट रुल्ड केरला शामिल हैं।
मोदी सरकार और भाजपा शाहीनबाग प्रतिरोध को राष्ट्र विरोधी बताते हुए कांग्रेस एवं लेफ्ट को सूत्रधार बता रहे हैं। हो सकता है कि पर्दे के पीछे इनकी अप्रत्यक्ष भूमिका हो। लेकिन कौन नहीं जानता कि हर आंदोलन के पीछे राजनीतिक ताकत रही हैं। क्या अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के विरोध में कथित आंदोलन के पीछे संघ या भाजपा की कोई भूमिका नहीं थी ? दरअसल, सत्ता में रहते कांग्रेस से कतिपय गलतियां हुईं, जिसके चलते उसके सामने आज विश्वसनीयता का बड़ा गम्भीर संकट है। जिसका सत्ताधारी भाजपा मोदी की लोकप्रियता और आभामंडल के दम पर फायदा उठा रही है। इस कड़ी में वह सुनियोजित रूप से सीएए मुद्दे पर समाज के ध्रुवीकरण करने में कामयाब रही है।
मुगल सल्तनतों के दौर में हुए घटनाक्रमों के मद्देनजर पूर्वाग्रहों को छोड़ने की दरकार है। अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद हुए हिंदुस्तान के बंटवारे और मौजूदा लोकतांत्रिक गणतंत्र की परिस्थितियों में भी अंतर है। सनद रहे कि इस दौर में समाज में धार्मिक आधार पर विभाजन से भारत की अखंडता पर आंच आ सकती है। चलो मान लेते हैं कि विपक्ष सीएए और एनआरसी के मुद्दे की आड़ में मुसलमानों को गुमराह कर रहा है।प्रचंड बहुमत की हनक में सत्ताधारी दल के कतिपय नेता का प्रदर्शनकारियों को ‘बिकाऊ-औरतें’ कहने के पीछे क्या मंशा है। क्या सरकार को विरोध शांत कराने के लिए एक संवेदनशील पहल नहीं करनी चाहिए?
मुझे लगता है कि मोदी सरकार को इस आंदोलन की तासीर समझने की जरूरत है। सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि छात्र और युवाओं का एक तबका भी सीएए पर सरकार के खिलाफ खड़ा है। ये उचित नहीं है कि जो भी आवाज खिलाफ उठे, उस पर गद्दार या पाकिस्तान परस्ती का तमगा चस्पा कर दिया जाए। असहमति को तवज्जो देने की आदत डालनी चाहिए। वरना भारत के घरेलू मामलों की गूंज विदेशी मंचों पर उठने का अंदेशा बना रहेगा।
Comment here