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Rahul Singh Shekhawat
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने केंद्रशासित दिल्ली में दमदार वापसी की है। उसने ना सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को धराशायी किया बल्कि लगातार तीसरी बार सरकार बनाने जा रही है। 70 सदस्यीय विधानसभा में सत्ताधारी आप को 62 भाजपा को 8 सीटें मिली हैं। जबकि कांग्रेस पिछली बार की तरह जीरो पर ही क्लीन बोल्ड हो गई। केजरीवाल दूसरे नेता हैं जो कांग्रेस की स्वर्गीय शीला दीक्षित के बाद, दिल्ली के लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बन रहे हैं।
वैसे चुनाव तो महज एक केंद्रशासित प्रदेश की विधानसभा के थे, लेकिन उसके परिणाम को लेकर पूरे देश में उत्सुकता थी। वजह ये कि मुकाबला ब्रांड नरेंद्र मोदी और ब्रांड अरविंद केजरीवाल के बीच था। लेकिन लगता है मतदाताओं ने पहले ही ठान लिया था कि दिल्ली में केजरीवाल के साथ खड़े होकर भाजपा के मंसूबों पर पर झाड़ू चलानी है। बेशक, दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम का राष्ट्रीय स्तर पर फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन सांकेतिक रूप से बड़ा महत्व इसलिए है क्यूंकि केजरीवाल ने मोदी नाम को हराया है।
मोदी के नेतृत्व में भाजपा लोकसभा चुनावों में ‘बालाकोट-स्ट्राइक’ के मुद्दे पर देश मे ध्रुवीकरण करने में कामयाब रही। लेकिन दिल्ली में ‘शाहीनबाग’ का नुस्खा कारगर साबित नहीं हुआ। केजरीवाल के मुकाबले किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करने से भी नुकसान हुआ। मुझे लगता है कि कांग्रेस अथवा विपक्ष मुक्त की सनक भाजपा को नुकसान दे रही है। थोक के भाव धूमिल छवि के दलबदलू और तोड़फोड़ कर थोपे गए उम्मीदवारों को नकारने लगे हैं।
कमोबेश दो महीने पहले ही झारखंड के वोटरों ने भाजपा के रघुवर का दास बनने से इंकार कर दिया था। ना सिर्फ खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास समेत पांच मंत्री बल्कि भाजपा प्रदेशाध्यक्ष भी खुद को हार से नहीं बचा पाए थे। वहां हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद गठबंधन की नई सरकार गठित हुई। साफ है कि मोदी मैजिक राज्य स्तर पर अब प्रभावहीन हो रहा है। मोदी-शाह युग में ताकतवर हुई भाजपा अब हिंदी बेल्ट से साफ होती जा रही है।
पिछले एक साल में उसके हाथों से पांच राज्य छिटके और अब दिल्ली में सत्ता वापसी का ख्वाब टूट गया । साल 2017 से भाजपा अथवा एनडीए के हाथों से सात राज्य निकल चुके हैं। जिसकी सीधी सपाट वजह तो मुख्यमंत्रियों का ‘नॉन परफॉर्मर’ होना है। दरअसल, मोदी ने अपने दम पर 2014 के बाद भाजपा को सिलसिलेवार बड़ी जीत तो दिलाई। लेकिन मुख्यमंत्रियों के चुनाव में जनाधार वाले स्थापित क्षेत्रीय नेताओं की बजाय व्यक्तिगत पसंद को तरजीह दी गई।
जिसके परिणामस्वरूप थोपे गए अनुभवहीन चेहरे जनता की कसौटी पर खरा उतरने में नाकाम रहे। जिसके परिणामस्वरूप भाजपा को एक के बाद एक राज्य में सत्ता गवानी पड़ी। झारखंड में तो गलतफहमी अथवा अहंकार इस कदर हावी रहा कि उसने सरकार में शामिल आजसू तक से गठबंधन तोड़ लिया। उधर, एनडीए का हिस्सा जनता दल(यूनाइटेड) और लोक जन पार्टी को भी सीट शेयरिंग में भाव नहीं दिया गया। दोनों दलों ने झारखंड में गठबंधन नहीं होने का ठीकरा खुले आम भाजपा पर फोड़ा था।
भाजपा मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड में सत्ता से बेदखल हो चुकी है। हरियाणा में भी बहुमत के अभाव में बमुश्किल दुष्यंत चौटाला बैसाखी के सहारे सरकार बना सकी। भाजपा की अपने दम पर हिंदी पट्टी में सिर्फ उत्तर प्रदेश में सरकार बची है। बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शामिल है। लेकिन, अंदरूनी तौर पर रिश्ते इतने मीठे कभी नजर आए कि पुख्ता तौर पर कहा जा सके कि जदयू और भाजपा का गठबंधन अटल ही रहेगा।
बेशक, फौरी तौर पर नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प नजर नहीं आता। लेकिन दिल्ली के परिणाम भाजपा के लिए झटका तो विपक्ष का हौसला जरूर बढ़ाने वाले हैं। भले ही मोदी सरकार एनडीए में अपने सहयोगी दलों के रहमोकरम पर निर्भर ना हो। लेकिन वो भविष्य में राज्य स्तर पर अपनी अहमियत और जरूरत का अहसास जरूर कराएंगे। कांग्रेस-वामपंथी छोड़िए खुद एनडीए का हिस्सा जेडीयू- एलजेपी और शिरोमणि अकाली दल बिहार में एनआरसी लागू करने से इंकार कर रहे हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि नागरिकता संशोधन एक्ट बनने के बाद देशभर में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। जिसके चलते पहली बार मोदी सरकार असहज दिखी है। खुद प्रधानमंत्री को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई रैली में सफाई देनी पड़ी कि एनआरसी लागू करना तो दूर की बात है, अभी तो उसकी कोई चर्चा तक नहीं हुई। उधर, गृहमंत्री अमित शाह संसद में छाती ठोंककर कहा था कि हम एन आर सी लाकर रहेंगे। लेकिन अब उनके भी सुर बदले हैं।
नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में धारा 370 को प्रभावहीन करके संघ का कोर एजेंडा लागू किया। ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून को संसद में पारित करवाया। इसके अलावा नागरिकता कानून में संसोधन किया। लेकिन उसके बावजूद भी विधानसभा चुनावों के नतीजे उत्साह जनक नही रहे। एक के बाद एक राज्यों में हुुुई हार मोदी-शाह के लिए बड़ी चिंता का सबब है।
बहरहाल, ध्रुवीकरण की कला में माहिर भाजपा को मतदाताओं के ‘करंट’ को समझना होगा। वैसे भी हर ब्रांड अथवा तौर तरीके की अपनी एक एक्सपायरी डेट होती है। साथ ही, राज्य स्तर पर जनाधार वाले क्षत्रपों को तरजीह देनी होगी। एक के बाद एक राज्य में मतदाताओं का ‘करंट’ महज एक ‘संयोग’ है या फिर कोई ‘प्रयोग’, खुद भाजपा नेतृत्व को उसके मायने तलाशने होंगे। वरना राज्य स्तर पर भाजपा के लिए हार के सिलसिले को थामना आसान नहीं होगा।
( लेखक टेलीविजन जर्नलिस्ट हैं)
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