Rahul Singh Shekhawat
एक बार फिर गैरसैंण के करीब में भराड़ीसैंण विधानसभा सत्र का गवाह बनने जा रहा है। इस खूबसूरत पहाड़ी स्थान पर 3 से 7 मार्च तक बजट सत्र आहूत हो रहा है। सवाल ये है कि क्या गैरसैंण को अपना ‘स्टेटस’ तय होने की उम्मीद रखनी चाहिए। या फिर पहले की तरह मौजूदा सत्र भी एक विधायी कोरम पूरा करने तक सीमित रह जाएगा।
दरअसल, पिछले महीने बदरीनाथ से भाजपा विधायक महेंद्र भट्ट ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने की मांग उठाई। उन्होंने पिछले महीने ये राग उस वक्त छेड़ा जबकि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की अफवाहें गर्म थी। इसका जवाब तो भट्ट के पास ही होगा कि क्या उन्होंने ऐसा किसी के इशारे पर किया था या फिर अपने गृह जिले की भावनाओं का ख्याल रखा ।
कहने की जरूरत नहीं है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने गैरसैंण में कैबिनेट बैठक आयोजित करके एक अस्थायी विधानसभा बनाने का बड़ा निर्णय लिया। लेकिन विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाली सरकार ने गैरसैंण के स्टेटस पर कोई निर्णय नहीं लिया कि वहां राजधानी बनेगी या नहीं। ये तय किया गया कि सरकार वहां साल में एक बार विधानसभा का एक सत्र आयोजित किया जाएगा।
उनके बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत ने 2014 में गैरसैंण में ‘टेंट और तम्बूओं में विधानसभा का ऐतिहासिक सत्र’ आयोजित करके उत्तराखंड आंदोलन की जनभावनाओं को नए पंख लगा दिए। लेकिन रावत ने भी बहुगुणा की तर्ज पर गैरसैंण के स्टेटस घोषित करने में हिचक दिखाई। अलबत्ता, उनके कार्यकाल में गैरसैंण पर खास फोकस रहा और वहां अवस्थापना विकास के काम तेजी से हुए।
कहा जा सकता है कि उसकी काट के तौर पर भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में गैरसैंण को ‘ग्रीष्मकालीन राजधानी’ बनाने का वादा किया था। लेकिन त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में अभी तक कोई इक्छाशक्ति नहीं दिखाई है। वहीं, गुटबाजी से जूझ रही विपक्षी कांग्रेस राजधानी पर निर्णय लेने के लिए कभी सरकार को मजबूर करती नहीं दिखी।
दरअसल, उत्तर प्रदेश से अलग पर्वतीय राज्य के लिए गैरसैंण को केंद्र में रखकर 1994 में आंदोलन हुआ था। लेकिन जब राज्य बना तो हरिद्वार, उधमसिंहनगर और नैनीताल एवं देहरादून का मैदानी भू भाग भी शामिल हो गया। उत्तराखंड गठन के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली नित्यानंद स्वामी की अंतरिम सरकार बनी। जिसने स्थायी राजधानी के निर्धारण के लिए दीक्षित आयोग बना दिया और अस्थायी राजधानी के तौर पर देहरादून से सरकार चलना शुरू हुई।
बेशक जज्बाती तौर पर उत्तराखंड पहाड़ी राज्य है, लेकिन जनसंंख्या के आधार पर कमोबेश आधी विधानसभा सीटें तराई-मैदान में आती हैं। दरअसल, यही 70 सदस्यीय विधानसभा में पहाड़ और मैदान की सीटों के वोट गणित का दवाब रहा है। जिसके चलते कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सरकारें राज्य गठन के दो दशक बाद भी स्थायी राजधानी का निर्णय लेने का साहस नहीं दिखा पाई।
अंतरिम सरकार में नित्यानंद स्वामी के बाद भगत सिंह कोश्यारी ने मुख्यमंत्री रहते स्थायी राजधानी का मुद्दा टालने को तरजीह दी। उनके बाद नारायण दत्त तिवारी, भुवन चन्द्र खण्डूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक, विजय बहुगुणा और हरीश रावत भी उसी लीक पर चले। अब उत्तराखंड 57 सीटों के प्रचंड बहुमत वाली त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार का मुंह ताक रहा है।
दिलचस्प बात ये है कि अभी तक सत्ता में काबिज रही कांग्रेस-भाजपा गैरसैंण को सीधे तौर पर स्वीकार करने से हिचकती रही हैं। लेकिन वहां विधानसभा बनने के बाद उसकी अहमियत को खारिज कर पाना अब असंभव है। लाख टके का सवाल है कि क्या गैरसैंण को त्रिवेंद्र सिंह रावत से फौरी तौर पर कोई उम्मीद रखनी चाहिए या फिर 2019 के मद्देनजर किसी चुनावी सत्र का इंतजार करना चाहिए।
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