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‘चौकीदार’ ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में बन पाएंगे’ महाराज’ !

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लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। वह पिछले दो दशकों के दौरान विभिन्न चैनलों में कार्यरत रहे। उन्होंने etv में संवाददाता, समाचार प्लस में डिप्टी ब्यूरो चीफ, न्यूज़ 18 में स्पेशल कोरेस्पोंडेंट और हिंदी खबर में संपादक के रूप में कार्य किया।
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लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। वह पिछले दो दशकों के दौरान विभिन्न चैनलों में कार्यरत रहे। उन्होंने etv में संवाददाता, समाचार प्लस में डिप्टी ब्यूरो चीफ, न्यूज़ 18 में स्पेशल कोरेस्पोंडेंट और हिंदी खबर में संपादक के रूप में कार्य किया।

Rahul Singh Shekhawat

  • क्या ज्योतिरादित्य भाजपा में वो हासिल कर पाएंगे जिसके लिए कांग्रेस छोड़ी
  • अगर कमलनाथ सरकार गिराने में नाकाम रहे तो भाजपा में क्या रहेगी उनकी उपयोगिता
  • भाजपा में दादी ‘महारानी’ विजया राजे सिंधिया सरीखा रुतबा मिलेगा पोते ‘महाराज’ को

अब ग्वालियर के ‘महाराज’ ज्योतिरादित्य सिंधिया  भारतीय जनता पार्टी का हिस्सा हो गए हैं। बेशक ये सच है कि मध्यप्रदेश की सियासत में मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की जोड़ी हावी है। जिसके चलते उनके राजनीतिक आभामंडल की चमक फीकी पड़ती जा रही थी। लिहाजा, ज्योतिरादित्य ने मजबूरन अथवा सोच समझकर अपनी बेहतरी के लिए ही कांग्रेस छोड़ी होगी।

चूंकि सिंधिया राजपरिवार के ‘नामदार’ हैं इसलिए भाजपा में शामिल होने के चंद मिनटों में राज्यसभा का टिकट मिलना तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि मोदी कैबिनेट में जगह मिल जाएगी। लेकिन जिस ओहदे को हासिल करने के लिए ज्योतिरादित्य कांग्रेस में बेचैन थे, क्या वह भाजपा में  आसानी से मिल पाएगा?

कहने की जरूरत नहीं है राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद उनके करीबी ज्योतिरादित्य का नाम भी उनके उत्तराधिकारी के तौर पर चला था। मुख्यमंत्री बनने का मौका चूकने और गुना सीट से लोकसभा चुनाव हारने के बाद खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ख्वाहिशमंद थे। ये बात दीगर है कि कमल और दिग्गीराजा की जोड़ी अध्यक्ष छोड़िए राज्यसभा टिकट के रास्ते में दीवारों बनकर खड़ी थी।

खैर, क्या ये संभव है कि भाजपा नेतृत्व भविष्य में कभी ओजस्वी वक्ता युवा नेता सिंधिया को प्रधानमंत्री ना सही लेकिन मुख्यमंत्री बनाने योग्य समझे। कभी नए दल में राष्ट्रीय ना सही तो कम से कम मध्यप्रदेश भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाने विचार हो! अगर नहीं तो फिर ‘महाराज’ भाजपा में ‘चौकीदार’ बनकर कब तक रह पाएंगे। इसलिए सवाल उठता है कि क्या सिंधिया के सामने यही आखिरी विकल्प बचा था?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने अपना स्वम्भू अधिक मूल्यांकन करते हुए ‘राजशाही’ अभिमान में एक गलत निर्णय ले लिया। वह अपने पिता स्वर्गीय माधव राव की तर्ज पर एक अलग पार्टी बनाने के विकल्प पर भी विचार कर सकते थे। गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव से मतभेदों के चलते उन्होंने किसी पार्टी में शामिल होने की बजाय एक अलग पार्टी ‘मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस’ बनाई थी।

ऐसा करके ज्योतिरादित्य अपने कौशल के दम पर आज के लोकतांत्रिक सरकारों के दौर में खुद को ‘महाराज’ साबित कर सकते थे। इससे ना सिर्फ व्यक्तिगत पहचान कायम रहती बल्कि अपनी जमीनी ताकत का आंकलन भी भविष्य के लिए कर सकते थे। लेकिन उन्होंने मध्यप्रदेश की राजनीति में मनचाही उड़ान भरने के लिए भाजपा में शामिल होना बेहतर समझा।

आगे बढ़ने से पहले आंध्र प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी का जिक्र करना चाहूंगा। जो अपने पिता तत्कालीन मुख्यमंत्री वाई एस आर रेड्डी की हवाई दुर्घटना में मौत के बाद शवयात्रा में ही उत्तराधिकारी बनाने की महत्वाकांक्षा काबू में नहीं रख पाए। जिसे दबाने के तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व के गलत तरीकों ने जगन की जिद को जुनून में तब्दील कर दिया। जो आज आंध्र के मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस इस कदर हाशिए पर है कि वजूद पर संकट खड़ा है।

मैं दावा नहीं कर सकता हूं कि ‘महाराज’ ज्योतिरादित्य में वो कुव्वत नहीं या फिर साहस नहीं जुटा पाए। लेकिन ये सच है कि उन्होंने ‘मोदी-शाह’ के प्रभावशाली युग में भाजपा में शामिल होकर, अपने ख्वाब पूरे करने के लिए आसान रास्ते पर चलने को तवज्जो दी। लेकिन भाजपा की सांगठनिक व्यवस्था में किसी के लिए भी अपनी समानांतर पहचान अथवा रौब कायम रखना आसान नहीं है।

इसलिए ज्योतिरादित्य के भविष्य का पहला इम्तिहान तो कमलनाथ सरकार गिराने में होना है। उन्हें साबित करना पड़ेगा कि वो उसी राजमाता विजया राजे सिंधिया के पौते हैं, जिन्होंने जनसंघ में पहुंचकर मध्यप्रदेश की तत्कालीन डीपी मिश्रा सरकार गिरवाई थी। अगर वह इसमें असफल रहे तो फिर उस भाजपा में उनकी उपयोगिता क्या होगी, जहां नरेंद्र मोदी अपने दम पर 303 सांसद जीताने का हुनर रखते हैं।

वैसे उन्हें याद रखना चाहिए कि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा और उत्तराखंड के पूर्व सीएम विजय बहुगुणा की मौजूदा सियासी हैसियत क्या है। इनमें बहुगुणा तो सिंधिया की तरह कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत के खिलाफ हुए असफल ‘तख्तापलट’ के मुख्य सूत्रधार थे।

हां, असम में सर्बानंद सोनोवाल और हेमंत बिश्वास सरमा इसके अपवाद हैं। बड़े जनाधार वाले सोनोवाल असम गण परिषद और हेमंत कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए। जिनकी लोकप्रियता और संघ के जमीनी नेटवर्क के दम पर भाजपा ने पूर्वोत्तर भारत में अपनी पहली सरकार बनाई। जिसमें आज सर्बानंद मुख्यमंत्री हैं और बिश्वास के पास नॉर्थईस्ट में पार्टी की अहम जिम्मेदारी है।

ये बिल्कुल सच है कि  कमलनाथ और दिग्गीराजा सुनियोजित तरीके से ज्योतिरादित्य के रास्ते में रोड़े डाल रहे थे। लेकिन कांग्रेस को मध्यप्रदेश में 15 साल के वनवास दिलाने दोनों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बेशक सिंधिया के यूथ फेस और ‘राजशाही ग्लैमर’ से चुनावी फायदा मिला। लेकिन कमलनाथ के आर्थिक और दिग्विजयसिंह की जमीनी राजनीति की बड़ी भूमिका रही।

सनद रहे कि मध्यप्रदेश आरएसएस का ना सिर्फ गर्भ गृह बल्कि हिंदुत्व के प्रयोग की बड़ी प्रयोगशाला भी रहा है। जहां ज्योतिरादित्य के आने से पहले भाजपा की लंबे समय सरकारें रही हैं। अगर मौजूदा हालात छोड़ दें तो उन्हें अपनी गलतफहमी दूर करनी होगी कि उनकी वजह से सरकार बन अथवा बिगड़ सकती है।

दरअसल, कांग्रेस जैसे-तैसे सत्ता मिलकर ही संतुष्ट हो जाती है। वरना इस बात का मूल्यांकन तो होना चाहिए कि अधिकार और आशीर्वाद प्राप्त क्षत्रपों की परफॉर्मेंस का औसत क्या रहा। आखिर क्यों एंटी इनकंबेंसी के बावजूद ना सिर्फ मध्यप्रदेश बल्कि राजस्थान में अपेक्षित बहुमत नहीं मिल पाया?

फिलहाल, नेतृत्व को लेकर अभूतपूर्व कंफ्यूज़न के दौर से गुजर रही कांग्रेस में आईना देखने और दिखाने दोनों का ही स्कोप नहीं है। चाहे जो वजहें रही हों लेकिन एक स्थापित और प्रतिभावान कद्दावर युवा नेता सिंधिया का छिटकना कांग्रेस के लिए बड़ा नुकसान है। लेकिन उनके कांग्रेस छोड़ने से पार्टी में अन्य नेताओं की नई पीढ़ी के मजबूत होने का रास्ता साफ हो गया है।

बहरहाल, अटल-आडवाणी के दौर में विजया राजे का भाजपा मेंं ‘महारानी’ का रुतबा बदस्तूर कायम रहा। अब वह खुद मोदी-शाह के दौर में ज्योतिरादित्य सिंधिया  ‘चौकीदार’ हो गए हैं। मुझे नहीं लगता कि उनकेे केंद्र में मंत्री बनने में कोई दिक्कत आएगी। सवाल ये है कि क्या वो ‘महाराज’ का दर्जा हासिल कर पाएंगे?

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