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Society: कहीं कोरोना के खौफ ने खून और जज्बाती रिश्तों के बहम को बेपर्दा तो नहीं कर दिया!

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Rahul Singh shekhawat

मुझे अपने चैतन्य काल में याद नहीं है कि कभी हवा इतनी साफ रही होगी। जीवनदायिनी नदियों में अब पानी इतना साफ है कि करोड़ों की रकम ठिकाने लगाने के बाद भी वो शायद ही सपने में दिखा हो। पिछले एक पखवाड़े में सड़कें इस कदर खाली हैं कि किसी एक्सीडेंट की नौबत ही नहीं आई। इन हालात में तो शर्तिया खुशनुमा अहसास होना चाहिए था। लेकिन ये क्या कोरोना के खौफ में तो बड़ा अजीब सा मंजर है? जो समाज मेें लोगों के दिलोदिमाग को बदलते हुए, खून और जज्बाती रिश्तों को बेपर्दा करने पर उतारू है।

कहने की जरूरत नहीं है कि  कोरोना वायरस की रोशनी में एक पक्ष के कुछेक जाहिलों की आड़ में भारतीय समाज का चेहरा साफ हो गया। अब तो कहीं खोल में छुपी बची खुची नफरत भी बाहर आ गई। अगर इंतेहा यहीं  हो जाती तो भी ठीक था। दूसरे मजहब से रिश्ते छोड़िए एक घर के अंदर की कलई खुलती नजर आ रही है। दरअसल, उसकी वजह बन रहा है जानलेवा कोरोना वायरस। जिससे मौत की भयावहता का मंजर उनसे दूर कर रहा है, जीतेजी जिनके साथ मरने की कसम खाते नहीं थकते थे।
किसी ने बताया कि झारखंड के जमशेदपुर में एक व्यक्ति की मौत हो गई। लेकिन कोरोना की आशंका के चलते उसकी पत्नी ने लाश लेने से इंकार कर दिया। नतीज़तन स्थानीय प्रशासन ने उसका अंतिम संस्कार कराया। किसी एक साथी ने फेसबुक पर मध्यप्रदेश के जबलपुर किस्सा और वीडियो शेयर किया। जहां एक महिला की मौत हो गई, लेेेकिन कोरोना की दहशत में उसके रिश्तेदार घर आने को तैयार नहीं हुए।  जिसके बाद मृतका की बेटी ने गरीब नवाज कमेेटी के सैय्यद इनायत अली की मदद से अंतिम संस्कार किया।
इसके पहले भी संभवतः उत्तर प्रदेश में किसी हिन्दू की अर्थी मुस्लिम समुदाय के लोगों के ले जाने एक वीडियो सामने आया था। भले ही ये एक नासमझी है लेकिन क्वारन्टीन-आईसोलेसन के डर से आत्महत्या करने के भी कुछेक वाकये पेश आए हैं। कुल मिलाकर आज समाज में कोरोना का इस कदर खौफ़ है कि IAS और प्रोफेसर सरीखे पढ़े-लिखे लोग ट्रेवल हिस्ट्री छुपाकर पड़ोसियों की जान खतरे में डालने को तैयार हैं। ये वो मंजर है जिसकी शायद ही कभी किसी ने कल्पना की होगी। लिहाजा सवाल फकत डर का नहीं है बल्कि समाज की बिगड़ती ‘मनोदशा’ से भी जुड़ा है।
वैसे मनोदशा के नाम से मुझे B.Com. करते वक्त का किस्सा याद आ गया। जिसका मौजूदा मरहले के मद्देनजर जिक्र करना जरूरी है। हमारे प्रोफेसर ने कॉमर्शियल लॉ के तहत इंडियन कांटेक्ट एक्ट पर लेक्चर दे रहे थे। उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में 1889 में दिए रंगनयकम्मा v/s अलवरशेट्टी मुकदमें की कहानी सुनाई। दरअसल, रंगनयकम्मा के पति की मौत हो जाती है। उसका जेठ अंतिम संस्कार नहीं करने की धमकी देकर, उससे किसी बिल पर दस्तखत करा लेता है। जिसके बाद मामला कोर्ट-कचहरी में चला गया। मद्रास हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि पति की मौत की बदहवासी में किया गया अनुबंध अवैध है।
लेकिन मौजूदा दौर में तो शादी के भावनात्मक अथवा सामाजिक अनुबंध रूपी रिश्ते पर कोरोना की दहशत भारी पड़ रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो जमशेदपुर में पत्नी अपने पति के अंतिम संस्कार के लिए लाश लेने से मना नही करती। और ना ही जबलपुर एवं अन्यत्र परिजनों के मना करने पर मुस्लिमों को ‘राम-नाम सत्य के लिए’ अर्थी नहीं ले जानी पड़ती। मैंने सिर्फ ज्ञात उदाहरणों का ही जिक्र किया इसलिए इसे धर्म से जोड़कर ना देखा जाए। हो सकता है कि समाज के अन्य तबकों में भी ऐसी घटनाएं हों, नो देर सवेर सामने आएंगी।
बहरहाल, अभी तक तो समाज के बदरंग, धार्मिक असहिष्णुता और मजहबी नफरत को लेकर चिताएं हुआ करती थी। लेकिन कोरोना के खौफ ने तो अपने हिसाब से एक घर के अंदर की सम्वेदना और रिश्तों की नई परिभाषा गढ़नी शुरू कर दी है। हालांकि इस महामारी से मौत के बाद, संक्रमण फैलने की आशंका के चलते परिजनों को लाश देने की पहले से मनाही है।लेकिन ये कुछेक वाकये बता रहे हैं कि जिंदगी खोने का डर जज्बाती और सामाजिक रिश्तों पर गहरा और दीर्घकालीन संक्रमण करता नजर आ रहा है।
(लेखक जाने-माने टेलीविजन पत्रकार हैं)

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