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जान की खैर हो! जाने-अनजाने मीडिया ‘कोरोना’ का डर तो नहीं फैला रहा?

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Dr Sushil Upadhyay

कुछ साल पहले की बात है। बॉलीवुड अभिनेत्री मनीषा कोइराला को कैंसर हो गया था। जब उनका इलाज शुरू हुआ तो उनके डॉक्टर ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि जब तक इलाज चलेगा तब तक आप कैंसर के बारे में सोशल मीडिया अथवा किसी भी मीडिया पर कोई सामग्री नहीं पढ़ेंगी। डॉक्टर का तर्क था कि ऑनलाइन मीडिया माध्यमों पर पर इतनी विरोधाभासी सामग्री उपलब्ध है कि आप तय नहीं कर पाएंगे कि आपकी बीमारी के बारे में कौन सी बात सही है और कौन सी बात गलत है।

इस बात को आज कोरोना के संदर्भ में लागू करके देखें तो हम लगभग वहीं पर खड़े हैं जहां मनीषा कोइराला और उनके डॉक्टर खड़े थे। मीडिया माध्यमों में इतनी व्यापक, अनियंत्रित और विरोधाभासी सूचनाएं आ रही हैं कि जैसे-जैसे आप इन सूचनाओं के संपर्क में आते हैं तो एक पाठक या श्रोता के रूप में न केवल आपका भ्रम बढ़ता है, बल्कि डर भी पैदा होता है।

मेरे घर में जो अखबार आते हैं, कुछ दिनों से उनकी खबरों की हेडिंग देख रहा हूँ, ज्यादातर खबरों की हेडिंग सूचना संप्रेषित करने के साथ साथ डर भी संप्रेषित कर रही हैं। कुछ उदाहरण देखिए, यदि आपकी आंख लाल है तो आपको कोरोना हो सकता है, यदि आपका सिर भारी है तो ये कोरोना का लक्षण हो सकता है, यदि आपके पेट में गड़बड़ी है तो कोरोना का लक्षण हो सकता है, यदि आपके पांव सूजे हुए हैं तो भी कोरोना हो सकता है।

यानि ऐसी कोई चीज शेष नहीं बची जिसे कोरोना के साथ न जोड़ा गया हो। ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि पशुओं में भी कोरोना हो सकता है। उत्तराखंड में हाथियों को कवीरेंटीन करने तक ही बात कही जा रही है। वास्तव में ये अति है। जहां इंसानों को नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा हो, वहां जंगली जानवरों को कैसे किया जाएगा, इस पर मीडिया को सवाल उठाते हुए खबर देनी चाहिए।

यकीनन, मीडिया का काम सूचना देना है, लेकिन सूचना देने के साथ लोगों को शिक्षित करना भी उसी के दायित्वों के दायरे में है। पूरी दुनिया में अभी कोरोना को लेकर, खासतौर से उसके इलाज को लेकर कोई व्यवस्थित अध्ययन उपलब्ध नहीं है। अभी कई तरह के अध्ययन हो रहे हैं और उनसे कई तरह के निष्कर्ष या परिणाम निकलने की संभावना भी बन रही है।

आम व्यक्ति जो टीवी, समाचार पत्रों और यदा-कदा ऑनलाइन माध्यमों से सूचनाएं प्राप्त करता है, उसके लिए वास्तव में यह समझना मुश्किल है कि कौन सी सूचना उसके काम की है और कौन सी सूचना उसके काम की नहीं है। पिछले एक महीने के अनुभव के आधार पर यह बात स्थापित तौर पर कही जा सकती है कि सूचनाओं के व्यापक प्रवाह ने लोगों के डर को बढ़ाया है।

सूचनाओं का काम भरोसा देना भी है, लेकिन कोरोना से जुड़ी सूचनाएं आश्वस्त करने के स्थान पर बेचैनी दे रही हैं। यदि मीडिया (सभी प्रकार के माध्यम) के चरित्र को देखें तो अनियंत्रित सोशल मीडिया जितने तरह के प्रयोग कर सकता है, वो लगातार कर रहा है। इनमें से कुछ प्रयोगों को टीवी माध्यम भी दोहरा रहे हैं। इन उल्टे-सीधे प्रयोगों को दोहराने की सुविधा प्रिंट मीडिया के पास नहीं है। ऐसे में प्रिंट मीडिया के पास केवल यही समाधान बचता है कि वह अपने हेडिंग्स और सब हेडिंग्स को ज्यादा सनसनी में लपेट दे। इस स्थिति से किसी भी तरह से पाठक का भला होने की कोई संभावना नहीं है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मौजूदा कोरोना काल में मीडिया, चाहे वह किसी भी तरह का मीडिया हो, उसने लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने में केंद्रीय और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन यह भूमिका गुणवत्ता के पैमाने पर थोड़ी चिंताजनक होती दिख रही रही है। यह सच है कि बीती एक सदी में मीडिया के लिए भी यह पहला अवसर है जब किसी वैश्विक महामारी को इतने बड़े पैमाने पर और इतने बहुविध माध्यमों से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है।

एक पाठक या दर्शक के तौर पर हम लोग इतनी अपेक्षा हमेशा ही करेंगे की सूचनाएं निरंतर मिलती रहें, लेकिन उन सूचनाओं के चारों तरफ डर का आवरण न लिपटा हो। उदाहरण के लिए आज ही एक खबर कई अखबारों में छपी है कि भारत में जितने लोगों की मौत हुई है, यदि शुरुआती 7 हजार मरीजों के आंकड़े के संदर्भ में देखें तो यहां चीन, इटली और अमेरिका से भी ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। यह आंकड़ा खबर के लिहाज से तो सही हो सकता है, लेकिन लोगों में भरोसा जगाने के लिहाज से यह पूरी तरह से नकारात्मक है।

इसके समानांतर शुरुआती दिनों में ऐसी खबरें छपीं, जिनमें यह कहा गया है कि चीन, इटली अमेरिका, स्पेन फ्रांस आदि देशों की तुलना में भारत में संक्रमण की दर कम है। इस खबर ने उन लोगों में यकीनन भरोसा जगाया होगा जो कोराना को मृत्यु का पर्याय मान बैठे हैं। मीडिया में खबरों के मौजूदा पैटर्न को बदल पाना किसी एक व्यक्ति, एक पाठक या दर्शक समूह के वश की बात नहीं है। यह मीडिया को ही तय करना है कि सूचना देने और सनसनी फैलाने की उसकी सीमा रेखा क्या होगी।
(लेखक उत्तराखंड हिंदी अकादमी में डिप्टी डायरेक्टर हैं। वह पूर्व में लंबे समय तक प्रतिष्ठित अखबारों में पत्रकार रहे। इस आलेख में लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)

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