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मजदूर(मई) दिवस! गहरी चोट देगी महंगाई भत्ते पर रोक

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Dr. Sushil Upadhyay

आज मजदूर दिवस है। बीते दशकों में यह सब से परेशान करने वाला मजदूर दिवस है। दुनिया में लगभग आधे लोगों की नौकरी संकट के घेरे में है, कोरोना ने अर्थव्यवस्थाओं को गहरे अंधेरे की तरफ ढकेल दिया है। यह बीमारी केवल स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ मामला नहीं रह गई है, बल्कि यह आम लोगों के आर्थिक सामाजिक जीवन को बुरी तरह तबाह करने को तैयार दिख रही है।

बीते कुछ महीनों में भारत की आर्थिक स्थितियां भी लगातार चुनौतीपूर्ण होती दिख रही हैं। सरकारों के हाथ बंधे हुए हैं और उससे भी ज्यादा बंधन में आम लोग हैं। इन हालात में भारत में दो बातें उम्मीद जगाती हैं- पहली, इस बार भी फसल उम्मीद के अनुरूप हुई है और दूसरी, यह कि भारत में बड़ी संख्या में लोगों का सरकारी, अर्धसरकारी नौकरी में होना।

ये दोनों बातें कहीं ना कहीं अर्थव्यवस्था के लिए मजबूती का आधार पैदा करता है। बीते दिनों में जिस प्रकार निजी क्षेत्र में लोगों की नौकरियां गई हैं अथवा उनके वेतन में कटौती या हुई है, उससे लग रहा है कि आने वाले दिनों में इन तमाम लोगों की क्रय क्षमता बुरी तरह प्रभावित होगी। इस दौर में यदि किसी के पास थोड़ी बहुत क्रय क्षमता मौजूद होगी तो वह सरकारी कर्मचारी ही है।

इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था को मजबूती देने या उसे संभालने में भारत सरकार और राज्य सरकारों के लाखों कर्मचारियों, पेंशनरों की बहुत बड़ी भूमिका होगी। यह बात सही है कि मौजूदा हालात में सरकारी कर्मचारी भी एक खास तरह के मनोवैज्ञानिक डर का शिकार होंगे, जिस कारण इनमें खर्च की बजाय बचत की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी।

फिर भी, यह वर्ग ऐसा होगा जिसके पास खर्च करने के लिए पैसा मौजूद होगा, जिसे यह देर सवेर खर्च करेगा ही, लेकिन इस वर्ग पर भी सरकार ने अचानक एक ऐसी चोट कर दी है जिसका असर साफ़ तौर पर अर्थव्यवस्था पर दिखाई देगा।

पहले केंद्र सरकार और उसके बाद राज्य सरकारों ने घोषणा कर दी कि अगले डेढ़ साल तक कर्मचारियों और पेंशनरों को किसी प्रकार का महंगाई भत्ता नहीं दिया जाएगा। विगत वर्षों के महंगाई भत्ते की दर के औसत को आधार मान लें तो हर 6 महीने में लगभग 4 फीसद की बढ़ोतरी होती है। डेढ़ साल में यह बढ़ोतरी 11 से 12 फीसद के बीच होगी।

अब कर्मचारियों और पेंशनरों को यह बढ़ोतरी नहीं मिल पाएगी। इसे पैसे की दृष्टि से देखें तो औसत हर कर्मचारी को प्रतिमाह दो हजार से लेकर 10 हजार का नुकसान हुआ है। वित्तीय मामलों के विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया है कि महंगाई भत्ते पर रोक लगाने से केंद्र और राज्य सरकारों को लगभग सवा लाख करोड़ रुपए की बचत होगी।

इस सवा लाख करोड़ रुपए को सरकारें कोरोना से हुए नुकसान की भरपाई और आम लोगों को राहत देने पर खर्च करेंगी, ऐसी बातें सरकारों की तरफ से कहीं जा रही हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार ने कर्मचारियों और पेंशनरों का पैसा रोककर खुद खर्च करने का निर्णय लिया है।

इस निर्णय से अर्थव्यवस्था को कितनी राहत पहुंचेगी, यह अभी संदेह के दायरे में है। इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि यह पैसा कर्मचारियों के पास जाता तो इस बात की संभावना ज्यादा थी कि यह बाजार में आकर अर्थव्यवस्था की मदद करता।

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि जब किसी कर्मचारी के पास एक रुपया आता है तो उससे अर्थव्यवस्था को ढाई रुपए मदद होती है। यह पैसा इस तरह से रोटेट होता है बाजार में आने के बाद एक रुपये के खर्च से अर्थव्यवस्था को ढाई गुना की मदद मिलती है। अब कल्पना कीजिए कि यदि सवा लाख करोड़ में से 80 फीसद राशि भी लोगों द्वारा खर्च की जाती तो इससे अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर ढाई लाख करोड़ रुपए का लाभ होता।

यहां एक बात यह ध्यान रखने वाली है कि ये निर्णय किसी एक खास पार्टी की सरकार का नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे सभी पार्टियों की सरकारें इसी दिशा में बढ़ रही हैं। एक तरह से उन्होंने कोरोना के संकट काल को अपने खर्चे कम करने की बजाए कर्मचारियों के वेतन घटाने के अवसर के तौर पर लिया है।

दीर्घकालिक तौर पर इस निर्णय का असर भारत की अर्थव्यवस्था पर ही पड़ना ही है। दुनिया की अनेक संस्थाओं द्वारा चाहे वह आईएमएफ अथवा वर्ल्ड बैंक हो या एशियन बैंक हो, इन सब के द्वारा विगत दशकों में भारत सरकार पर यह दबाव बनाया जाता रहा है कि उसे कर्मचारियों की संख्या कम करनी चाहिए।

तथाकथित ग्लोबलाइजेशन के दौर में भारत पर यह भी दबाव बनाया जाता रहा है कि उसे लोगों को खेती से हटाकर ट्रेंड लेबर की तरफ लेकर जाना चाहिए यानी खेती में लगे लोगों की संख्या कम करनी चाहिए। आज के संदर्भ में देखें तो भारत की अर्थव्यवस्था आने वाले दिनों में इन्हीं दो आधारों की वजह से बर्बाद होने से बचेगी- पहला, खेती में बड़ी संख्या में लोगों का लगे होना और दूसरा, बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों और पेंशनरों का होना।

यूरोप के ज्यादातर देशों में यह दोनों चीजें नहीं हैं। इस कारण यूरोप की और यहां तक कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था भी एक बड़े संकट के मुहाने पर खड़ी हुई। महंगाई भत्ते पर रोक लगाए जाने के विरोध को संभव है कुछ लोग राष्ट्र विरोध तरह परिभाषित करने की कोशिश करें, लेकिन मैंने इस विषय को किसी राजनीतिक एंगल की तरह देखने की बजाय आर्थिक पहलुओं पर देखने की कोशिश की है।

बाजार में बैठा सामान्य दुकानदार भी इस बात को अच्छी तरह समझता है कि सरकारी कर्मचारी को मिलने वाला वेतन उसकी बिक्री और आय का मुख्य आधार है। यदि सरकारी कर्मचारी के वेतन में अथवा उसके भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती की जाएगी तो अंततः इसका नुकसान नीचे की तरफ ही जाएगा, जबकि इसका एक बेहतर तरीका यह हो सकता था कि सरकार इस भत्ते को रोकने की बजाय कर्मचारियों को यह निर्देशित कर सकती थी कि वे अपने वेतन का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से सरकारी बचत योजनाओं में लगाएं।

इससे सरकार के पास आसानी से पैसा आ जाता और उस पैसे का इस्तेमाल लोक कल्याणकारी योजनाओं में किया जा सकता था। चूंकि कोरोना के कारण देश के हालात चुनौतीपूर्ण है इसलिए कर्मचारियों की तरफ से किसी तरह के आंदोलन या विरोध प्रदर्शन की कोई संभावना नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे कर्मचारियों के भीतर यह राय बन रही है कि सरकार का यह निर्णय किसी भी तरह से देश अर्थव्यवस्था और समाज के हितों के अनुरूप नहीं है।

यहां एक और बात गौर करने वाली है कि सरकारी कर्मचारियों को बहुत बड़े संघर्ष के बाद महंगाई भत्ता हासिल हुआ था। यह कोई सरकारों की कृपा से जुड़ा हुआ मामला नहीं है। मौजूदा निर्णय से एक और खतरा पैदा हुआ है कि इसी चीज को आधार बनाकर अब प्राइवेट सेक्टर भी महंगाई भत्ते पर रोक लगाएगा। वेतन में कटौती की बात के लिए चाहे कितने भी वाजिब आधार मौजूद हैं, लेकिन अंततः इसका नुकसान आम लोगों को ही उठाना होगा। इस संदर्भ में भारत की निजी क्षेत्र के सबसे बड़े समूह रिलायंस को भी देख सकते हैं।

रिलायंस की ओर से घोषणा कर दी गई कि उसके द्वारा कर्मचारियों के वेतन आदि में 10 से लेकर 50 फीसद तक की कटौती की जाएगी। यह वही प्राइवेट क्षेत्र है जिसका गुण गाने में हमने बीते 30 सालों में कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन एक जरा-सा झटका आने के साथ ही इसे अपने लाभ की चिंता सताने लगी है।

इसलिए एक बार पुनः इस बात पर विचार किए जाने वाले आवश्यकता है कि हमें आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र को मजबूत करना है या फिर सरकारी सेक्टर को दमदार बनाना है और यदि सरकारी सेक्टर को दमदार बनाना है तो फिर सरकारों पर यह दबाव बनाकर भी रखना होगा कि वह कर्मचारियों के हितों के खिलाफ आसानी से कोई फैसला न कर सकें।

(लेखक उत्तराखंड हिंदी अकादमी के डिप्टी डायरेक्टर हैं और उन्होंने लंबे समय प्रतिष्ठित अखबारों में पत्रकार रहे। इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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