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अविश्वसनीयता और ‘कम्युनल लॉक’ में डाउन भारतीय मीडिया

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Rahul Singh Shekhawat
भले ही भारत दुनिया में मीडिया फ्रीडम इंडेक्स में 142 पायदान पर है। फिर भी इस बात पर खुश हो सकते हैं कि पाकिस्तान से तो 3 पायदान ऊपर हैं।किसी भी देश में मीडिया ज्यादा सवाल सरकार से पूछता है। लेकिन देश में इसके बजाय विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने पर जोर है। ये विडंबना है कि सियासत और समाज की तरह मीडिया भी ‘कम्यूनल’ हो चुका है। कोरोना काल में एक धर्म से जुड़े हालिया  प्रकरण की रिपोर्टिंग इसकी तस्दीक करने को काफी है। मौजूदा भक्तिकाल में भारतीय मीडिया के सामने विश्वसनीयता का संकट है।
 
खैर! मेरे हमपेशेवर एवं अन्य सभी दोस्तों को अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस की बधाई। क्यूं ना इस मौके पर ये आत्ममंथन किया जाए कि देखते ही देखते हम ‘वॉचडॉग’ की बजाय ‘कुत्ते, दलाल और बिकाऊ’ कब और कैसे बन गए? ये वो अलंकरण हैं जो आजकल सत्तापक्ष एवं आभासी दुनिया यानि सोशल वेबसाइट पर सक्रिय क्रांतिवीरों ने मीडिया के लिए तय कर दिए हैं। सबसे पहले मैं एक वाकया आपसे साझा कर रहा हूं।
“तुम साले सबके सब निहायत ही कुत्ते हो, भरोसे के लायक नहीं हो और अब तो मैं तुम पर भी कैसे कर सकता हूं”। ये तल्ख और गुस्सा भरे लब्ज मेरे एक तालीमयाफता, संजीदा और बदलाव की नीयत से राजनीति में आए एक फाजिल दोस्त के थे। ये बात उस रोज की है, जबकि ‘कोबरा-पोस्ट’ के कथित स्टिंग की पहली किस्त सोशियल मीडिया पर जारी हुई थी। दरअसल, वो इसलिए मुझ पर टूट पड़ा था क्यूंकि उसमें मेरे तत्कालीन चैनल के प्रधान संपादक हाथ में जाम लिए फण्ड के लिए कुछ भी दिखाने का दम भर रहे थे।
मैं उस दोस्त से सिर्फ ये कहना चाह रहा था कि  मैंने वो स्टिंग अभी देखा नहीं है। बमुश्किल बोल पाया कि नेता- अधिकारी पहले से डकैती डाल रहे हैं। देश की न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की दीमक बढ़ रही है। कारपोरेट मीडिया सरकारी दवाब अथवा मुनाफा कमाने की दौड़ में  या फिर स्टार्टअप संस्थान खुद को जिंदा रखने के लिए अथवा निजी स्वार्थों की पूर्ति केे लिए नंगा होकर सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं। प्रॉफिट थ्योरी अथवा धन की चाहत के मद्देनजर ना सिर्फ मीडिया बल्कि हर सिस्टम में  “अनएथिकल प्रक्टिसेस” हो रही हैं।
 बहुत ज्यादा जज्बाती हो चुके मेरे उस दोस्त ने गुस्से में मुझ पर मोबाईल पर कमोबेश 20 मिनट तक जमकर भडास निकाली थी। अलबत्ता मैंने आखिर में उस दोस्त से इतना भर पूछा कि संस्थान छोड़ो, क्या तुम्हें मुझ पर भी यकीन नहीं रहा, वो बोला बिल्कुल भी नहीं। हालाकि बाद में उस दोस्त का व्हाट्सएप पर सॉरी का मैसेज आ गया था।
दरअसल, गुस्सा शांत होने पर दोस्त को उसकी पत्नी ने समझाया कि किसी भी सिस्टम में सब के सब एक समान नहीं हो सकते हैं। वैसे उस दोस्त के जज्बात और गुस्सा दोनों ही पूरी तरह जायज थे। लेकिन सच कहूं तो बहुत कुछ छोडकर पत्रकारिता में आने के बाद उस रोज मुझे पहली बार इस पेशे में आने के बाद तकलीफ हुई।
दरअसल, सत्ता अपनी साईबर सेना और मीडिया घरानों को विज्ञापन देकर अपनी अंगुलियों पर नचा नंगा और बिकाऊ साबित करने की मुहिम जुटी है। जिससे अप्रत्यक्ष तौर ईमानदारी से पत्रकारिता के पेशे को अपनाने वाले लोगोंं के हौसले पर बडी चोट पहुंची है।  सिर्फ पत्रकार नहीं पत्रकारिता पर आंख मूंदकर भरोसा करने वालों का भरोसा डगमगा गया है। शायद तभी उस दोस्त ने मुझ पर टूटकर अपनी भडास निकाली थी।
आपातकाल के दौरान भी तत्कालीन कांग्रेस हकूमत के दौर में मीडिया और लोकतंत्र दोनों का गला घोटने की कोशिश हुई। लेकिन आज ताकतवर मोदी सरकार मीडिया को दिनोंदिन सिर्फ कमजोर नहीं बल्कि सुनियोजित तरीके से समाज की नजरों में खलनायक बनाने पर उतारू है।
इंदिरा गांधी के दौर में भी थोडे बहुत पत्रकार के भाट हुआ करते थे। फिर भी तमाम पत्रकारों ने अपने पेशे को जिंदा रखने के लिए जमकर लोहा लिया था। उन्हें भी तत्कालीन विपक्ष का एजेंट कहा गया होगा। लेकिन खुशनसीब थे जो देशद्रोही होने का तमगा नहीं मिला था। लेकिन, आज सत्ता के खिलाफ सवाल उठाने का मतलब देशविरोधी होने की श्रेणी में आता है।
इस दौर में कॉरपोरेट की पूंजी वाले मीडिया संस्थानों विज्ञापन का चुग्गा या फिर ना देने का डर दिखाकर उसकी पहचान को खत्म करने की कोशिश हो रही हैं। आलम ये है कि या तो सरकार के सामने नतमस्तक हो जाओ वरना परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहो। दिलचस्प बात ये है कि आज सत्ता का चाटुकार बनने के लिए मठाधीश पत्रकारों में होड़ लगी है।
दरअसल इस तबके ने भी सत्ता पक्ष के मुहिम का हिस्सा बनकर पत्रकारों के खिलाफ जनमानस में घृणा का माहौल बनाने में स्लीपर सेल की भूमिका निभा रहा है। कॉरपोरेट मीडिया के सौतेलेपन से त्रस्त मौजूदा विपक्ष ने भी मीडिया की साख पर हमला करने की ही राह पकड़ ली है।
इस सारी कवायद मेें कारपोरेट मीडिया संस्थान मुनाफा कमाने या फिर अपने बडे हित साधने में कामयाब हैं, लेकिन जिम्मेदार पत्रकारों का हौसला टूट रहा है।  इसमें कोई शक नहीं है कि मीडिया ने कई मामलों में या तो सीमाएं लांघी या फिर गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किया है। हालिया अर्णब गोस्वामी का प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है।
बावजूद इसके आज भी मीडिया ही वो जरिया है, जिससे थक हारकर न्याय पाने में मदद की उम्मीदें बंधती हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट के इंटरनल सिस्टम से मायूस जज साहिबान को भी मीडिया की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखना पड़ा था। आज एक पत्रकार बड़ी अजीबोगरीब बिडम्बना से गुजर रहा है। मौजूदा कोरोना का परिदृश्य आर्थिक तौर पर संकटकाल नजर आ रहा है।
वह जिस संस्थान के लिए काम करता है वो उसका सगा नहीं होता। और खुद भ्रष्टाचार में शामिल समाज के लोग उसे दलाल या बिकाऊ कहकर अपना ऐब छुपाने में लगे हैं।  कहने का मतलब ये है कि जरा इस मर्म को समझने की कोशिश कीजिए। बहरहाल विरोधाभास के बावजूद निजी स्तर पर मीडिया का विस्तार और संक्रमण समानांतर चल रहा है। मीडिया में जहां दिक्कतें हैँ, उसे सुधारने की पहल होनी चाहिए और स्वस्थ बहस भी।
सनद रहे कि मीडिया के खिलाफ घृणा फैलाकर देश का भला नहीं हो सकता। अंत में व्यक्तिगत तौर पर सिर्फ इतना कहूंगा कि—-‘ना दैन्यम ना पलायनम’।

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