Srikant Saxena
किसी तरह चालीस बयालीस दिनों तक अपनी रोज़ी-रोटी से लेकर गांठ की अंतिम पाई तक गंवाकर और शायद कुछ दिन अपनी ग़ैरत को भुलाकर दूसरों के फेंके रोटी के टुकड़ों पर गुज़र-बसर करने के बाद श्रमदेवता आख़िर अपने गाँव चल पड़े। पैदल या फिर टूटी-फूटी साईकिल पर, परिवार समेत,सैकड़ों मील का सफर तय करने के लिए। लेकिन थोड़े से मजदूर अब भी फँसे हुए हैं उन राज्यों में जिनको पिछले कुछ बरसों से उन्होंने अपनी मेहनत से संवारा-सजाया था। सड़कें बनाईं, बिल्डिंगें बनाईं, कारखानों के पहियों को गति दी थी। कारखाने अब खामोश हैं,सड़कें वीरान और बिल्डिंगों से कोई झाँकता तक नहीं। बयालीस दिनों तक मजदूर कुछ अप्रत्याशित होने की प्रतीक्षा करते रहे।
दिल्ली और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री टीवी पर दिखे मजदूरों के प्रति संवेदना वाले शब्द और मन में सस्ते मजदूरों के पलायन की घबराहट छुपाए हुए।शहरों और राज्यों की जो भी रौनक़ है।कामयाबी के जो भी आँकड़े हैं,कुर्सियों के जो भी नर्म कुशन हैं। उनके नीचे इन्हीं ग़ैरतमंद, स्वाभिमानी, मजदूरों की विवशता और दारिद्रय भरा हुआ है।वे हज़ारों मील का सफ़र पैदल तय करने का हौसला रखते हैं,और अगर कहीं से सहायता के रूप में ठहरने की इजाज़त भी मिल जाए तो उसे मुफ्त में नहीं लेते,वे उस इमारत की मरम्मत ,रंगाई-पुताई ही कर डालते हैं।
ये स्वाभिमान मजदूरों में ही मिल सकता है।जो आज भी संविधान के उन प्रावधानों पर भरोसा करे बैठे हैं,जिनमें सभी नागरिकों को मानवीय गरिमा के साथ जीने देने का आश्वासन दिया गया है।इन मजदूरों के आत्माभिमान का सहस्रांश भी यदि माल्यों,नीरवों,मोदियों और राजनेताओं में होता तो तिहत्तर साल पुरानी आज़ादी इतनी कुरूप और असंवेदनशील नहीं होती।
सस्ते श्रम की वापसी से राज्यों के मुखिया दुखी हैं।बयालीस दिन की त्रासद जद्दोजहद के बाद भी जब सुरंग का कहीं अंत नज़र नहीं आ रहा तो मजदूरों की घर वापसी का उपक्रम आरंभ हो चुका है।जो सरकार सीरिया,ईरान और चीन सहित कितने ही देशों से भारतीयों को निकाल लाने की नुमाईश करते हुए अपनी पीठ थपथपाते नहीं थकती और दुनिया के सामने ये साबित करती रही है कि वह दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे अपने नागरिकों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहती है।वह ईरान और सीरिया में फँसे हजारों नागरिकों को मुफ़्त वापस लाती है और दुनिया को बताती है कि इन नागरिकों में ज़्यादातर मुसलमान हैं।
भारत में मुसलमान होना धार्मिक से अधिक राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।इनसे सर्टिफिकेट मिल जाए तो सरकार के चेहरे से कई धब्बे साफ़ हो जाते हैं।
बहरहाल मजदूर बयालीस दिनों की जद्दोजहद के बाद,ख़ाली पेट और ख़ाली ज़ेब अभी तक ज़िंदा हैं।सो सरकार को आख़िर उनकी वापसी का नाटक करना पड रहा है।ये मजदूर पहचानहीन हैं,ये किसी के समक्ष कोई चुनौती देने से असमर्थ हैं।
इनके पक्ष में न कोई मौलवी फतवा जारी करता है न ही कोई हिंदू सेना या हुडदंगदल इनके लिए तनिक भी विचलित होता है।और तो और देश भर में करोड़ों लोग अपने घरों में टीवी पर इन लाखों मजदूरों को बीवी,बच्चों समेत सिर पर पोटलियां रखे हजारों किलोमीटर का सफर पैदल तय करते हुए देखते हैं और इससे किसी की चेतना पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता। बहुत से मजदूर या बच्चे लंबे सफर की थकान से सड़क पर ही दम तोड़ देते हैं। लोग बस ये सब टीवी पर देखते हैं। फिर भी उनकी संवेदनशीलता किंचित आहत नहीं होती।
सरकार अपना क्रूर और असंवेदनशील चेहरा छुपाने के लिए एक के बाद एक अनेक परिपत्र जारी करती है।मुख्य बिंदू हैं कि मुफ्त में मजदूरों को उनके घरों तक नहीं पहुंचाया जाएगा।देश में दूर से दूर जाने का साधारण किराया दो ढाई सौ रुपये से ज़्यादा नहीं होता लेकिन मजदूरों से आठ सौ से हज़ार रुपये वसूले जाते हैं।इसके बावजूद कहा रहा है कि ये तो असल खर्चे का सिर्फ़ पंद्रह फ़ीसदी ही है।ये रेलगाड़ी जाएगी तो खाली लौटेगी भी तो,उसका खर्चा भी मजदूरों से ही वसूला जाना चाहिए ।टीवी पर राजनीतिक प्रहसन शुरु होता है।
सरकारी किराये से तीन-चार गुना अधिक भुगतान करने के बाद भी मजदूरों को ये कहकर अपने घर जाने की अनुमति मिलती है गोया ये उन पर केंद्र और राज्य सरकारों का बहुत बड़ा उपकार किया जा रहा है,और ऐसा उन पर की जा रही कृपा के कारण संभव हो रहा है।एक तरह से सरकार दान देकर मजदूरों की मदद करने की नुमाइश कर रही है।जहाँ तक मजदूरों का सवाल है,और सरकार की संकटपूर्ण वित्तीय स्थिति ,तो अगर सरकार इन मजदूरों को मालगाड़ियों में भी जानवरों की तरह भेज देती तो भी मजदूर आभारी होते,और हां पूरा किराया भी भरते।किंतु ज़ोर तो मदद से ज़्यादा ज़लील करने और मज़ाक उड़ाने पर है,सो बयालीस दिन बाद भी ज़ुबानी मैच जारी है।
सच्ची बात हर सुधि नागरिक समझ रहा है।सरकारें चाहती हैं कि उनके क्षेत्र से मजदूर वापस अपने घरों को न लौटें।इतने सस्ते और इतनी असुरक्षाओं में जीने वाले मजदूर यदि एक बार घर लौट गए तो शायद वे फिर कभी न लौटें।मुंबई हो या दिल्ली हर बड़े शहर की रौनक़ें इन्हीं मजदूरों की अँधेरी असुरक्षाओं और समझौतों का नतीजा हैं।ये मजदूर बिहार,यूपी,मध्यप्रदेश या फिर राजस्थान या उड़ीसा,छत्तीसगढ़ या झारखंड कहीं के भी हो सकते हैं,लेकिन उनकी विवशताएं और असुरक्षाएं एक जैसी हैं।ये मजदूर हिंदू हैं,मुसलमान भी हैं,लेकिन इनका राजनीतिक महत्व कुछ भी नहीं है।लिहाजा इनकी धार्मिक पहचानें भी कोई मायने नहीं रखतीं।
सच तो ये है कि अपने श्रम,कौशल या ग़ैरत के अलावा इनके पास कुछ भी नहीं है। मनुष्य होने के नाते जिस मानवीय गरिमा का आश्वासन संविधान में इन्हें दिया गया था,उसकी अंत्येष्टि तो कोरोना से बहुत पहले ही हो चुकी है। तय किराये से चारगुना ज़्यादा पैसा ये मजदूर पहले ही भर चुके हैं। सरकारें इस बात के लिए इन्हें और ज़लील कर सकती हैं कि जिन रेलगाड़ियों में इन्हें सफर करना है उनकी बहुत सी सीटें सरकार को ख़ाली छोड़नी पड़ेंगी,सरकार अपनी उदारता व दानशीलता का परिचय देते हुए रेलगाडियों के लौटने का खर्चा इनसे वसूल नहीं कर रही,हालांकि रेल मंत्रालय अपने इस नुकसान की भरपाई संबंधित राज्य सरकारों से करवाना चाहता है।इस बहाने सरकारें अपने कल्याणकारी चेहरे की नुमाईश भी कर सकती है।
तबतक आप सब भी अपने टीवी पर बयालीस दिनों की यंत्रणा के बाद,मजदूरों के चलाई जाने वाली ‘विशेष’ रेलगाड़ियों,उनमें ‘मुफ्त’ सफ़र की सरकारी उदारताओं,और राजनीतिक दलों की दानशीलता पर आधारित न्यूज़ विमर्शों के बेहतरीन शोज़ का मज़ा ले सकते हैं।यक़ीन रखिए,सपरिवार हजारों किलोमीटर लंबी सड़क को पैदल नापने का हौसला रखने वाले आत्माभिमानी मजदूरों की कहानियों की तरह ये शो भी कम मज़ेदार नहीं होगा।और हाँ,निश्चिंत रहिए इस बार भी सरकारों को शर्मिंदगी का सामना नहीं करना पड़ेगा न ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आपको थोड़ा कम लोकतांत्रिक लगेगा।
(इस आलेख में लेखक के निजी विचार हैं)
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