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राष्ट्रवाद जनित ‘संकीर्णता’ मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास में बाधक- रविंद्रनाथ टैगोर

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Pramod Sah

पूरी दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवाद ने आज मानवता के लिए अघोषित संकट खड़ा कर दिया है।  मनुष्य का अस्तित्व भौगोलिक सीमाओं में कैद हो रहा है। लगता है पूर्णता एक स्वप्न ही बन गई है। यह एक संयोग है कि आज बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही 7 मई को ‘गुरुदेव’ रवींद्रनाथ टैगोर का जन्मदिन भी है। इस महान आत्मा ने 1861को कलकत्ता में जन्म लेकर विश्व पटल पर भारत को स्थापित किया।

कहने की जरूरत नहीं है कि गुरुदेव टैगोर भारत के राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय है….’ के सृजनकर्ता हैं। सवा सौ साल पहले उनके राष्ट्रवाद की विचार प्रक्रिया ने जन्म लिया। लगता है मानो वह सब आज के लिए ही कहा गया था।  कोरोना के वैश्विक संकट में मानवता राष्ट्रवाद की जंजीरों से मुक्त हो पाए, यही रविंद्र नाथ टैगोर को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

वैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर टैगोर के विचार इन दोनों की परंपरागत परिभाषा से कुछ हट कर हैं। उन्होंने1908 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबला बोस की राष्ट्रवाद पर अपनी आलोचना का बेहद दिलचस्प जवाब दिया था

टैगोर ने कहा था कि देशभक्ति मेरे लिये मेरा अंतिम आध्यात्मिक आश्रय नहीं हो सकता है। मैं हीरे की कीमत में, शीशा नहीं खरीद सकता हूं। मेरा जब तक मेरा जीवन है मनुष्यता के ऊपर देशभक्ति की जीत हावी नहीं होने दूंगा। जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत हावी नहीं होने दूंगा।

गुरुदेव ‘संकीर्ण राष्ट्रवाद’ के विरोध में आगे लिखते हैं कि राष्ट्रवाद जनित संकीर्णता यह मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधक है। ऐसा राष्ट्रवाद युद्धोन्मादवर्धक एवं समाज विरोधी ही होगा। राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य द्वारा सत्ता की शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता है।

टैगोर ने कहा कि पृथ्वी भी एक ग्रह ही है। पर इसका महत्व इसकी निर्झरता, शस्यश्यामला, हरीतिमा, इस धरती पर विचरने वाले जीव, जंतु, वनस्पतियों और मनुष्यों पर टिका है। राष्ट्र एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं है कि सब कुछ मिडास की तरह स्वर्ण की लालसा में जड़ बना दिया जाए।

रविंद्र नाथ टैगोर की अवधारणा थी कि राष्ट्र उसके नागरिकों, नागरिकों के सुख और उनके जीवन स्तर, बौद्धिक विकास और सुख तथा प्रसन्नता के मापदंड पर आधारित है।

(इस आलेख में लेखक के निजी विचार हैं)

 

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