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Indo-China बॉर्डर तनाव: भारतीय कूटनीति की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा! ड्रेगन के नापाक मंसूबे नाकाम करने की चुनौती

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Pramod Sah

यूं तो भारत एवं चीन के मध्य दुर्गम और विस्तृत खुली सीमा 3484 कि .मी. की है। जिसमें रोज ही सीमा का दो तरफा उल्लंघन होता ही रहता है। लेकिन पिछले सप्ताह चार महत्वपूर्ण स्थानों पर गलवान घाटी, अक्साई चीन, पौगंग झील, लद्दाख की गतिविधियां  निश्चित रूप से भारत को परेशानी में डालने वाली हैं। दरअसल, चीनी पीपुल्स आर्मी सैनिक महत्व के शस्त्र तोप और मोर्टार के सहारे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के तीन-चार किलोमीटर अंदर तक आ गई।

आमतौर पर बॉर्डर मैनेजमेंट कमेटी या सैन्य अधिकारियों की फ्लैग मीटिंग में तनाव के समाधान का रास्ता निकलता रहा है। लेकिन इस बार चीन ने सैन्य हस्तक्षेप के तहत कमांडर्स  फ्लैग मीटिंग में आकर सुलझाने के प्रयासों से भी मना कर दिया गया। जिसके मद्देनजर मौजूदा घटनाक्रम  केंन्द्रीय कमान की सहमति से सुनियोजित लगता है। कोरोना के इस संकट के समय चीनी सेना का यह कृत्य निश्चित रूप से रणनीतिक महत्व का है।

इसके साथ ही पिछले सप्ताह नेपाली सेना ने लिपुलेख पिथौरागढ़ में सड़क बनाए जाने के बाद जिस प्रकार सैन्य प्रदर्शन किया। वह कहीं ना कहीं दबाव वनाने की कूटनीति का ही परिणाम है। उल्लेखनीय है कि पिछली दो सदियों  1815 के बाद से भारत और नेपाल के संबंध अत्यधिक मित्रता पूर्ण रहे हैं। भारत नेपाल की 1950 की संधि से पूर्व नेपाल भारत में विलय का प्रस्ताव भी दे चुका था। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में नैपाल का यह शक्ति प्रदर्शन, भारत के लिए बेहद चिंताजनक है ।

इन दोनों ही घटनाओं को चीन की बहुउद्देश्यीय सामरिक एवं व्यापारिक महत्व की परियोजना ‘वन रोड वन बेल्ट’ के निर्माण में भारत की असहमति की प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जा रहा है ।

दरअसल इन सारे घटनाक्रमों की एक पृष्ठभूमि भी है। दूसरी शताब्दी में चीन के हेन डायनेस्टी के राजा झैन्क्यू के शासनकाल में यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मार्ग जो इटली यूरोप से शुरू होकर ईरान भारत वर्मा होते हुए इंडोनेशिया तक जाता था। करीब 6500 किलोमीटर लंबे पथ को इतिहास में सिल्क मार्ग के नाम से जाना जाता है। यह मार्ग कोई चार सौ वर्षों तक भारत की केंद्रीय सत्ता का सूत्र रहा। रेशम मार्ग पर नियंत्रण से राज्य प्रतिष्ठा बल्कि राष्ट्र समृद्धि का द्योतक भी रहा।

भारत के गुप्त, कनिष्क और हर्षवर्धन के शासनकाल तक इसका महत्व समझा जाता रहा। इस सिल्क मार्ग के कारण ही चौदहवी सदी तक चीन का एशिया एवं यूरोप के राष्ट्रों में दबदबा बना रहा। इस मार्ग से न केवल मसाले, इत्र, ड्राई फ्रूट, कालीन, शिल्प, शराब फल का ही कारोबार नही हुआ बल्कि सभ्यता, संस्कृति और धर्म के विस्तार में भी इसने महत्वपूर्ण योगदान दिया। चीन में बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म का आगमन इसी मार्ग से हुआ। यह मार्ग ह्वेनसांग और मार्कोपोलो की यात्राओं के लिए भी प्रसिद्ध रहा है।

साल 2013 में सिंग जिंगपिन की सरकार ने दोबारा अपने ऐतिहासिक मार्ग को बनाने की रूपरेखा तैयार की। इस बार का यह मार्ग थल के साथ ही समुद्र मार्ग से भी आगे बढ़ रहा है। यह इटली के दक्षिण से शुरू होकर ईरान और फिर समुद्री मार्ग से श्रीलंका होते हुए इंडोनेशिया तक जा रहा है। अभी इस मार्ग के विस्तार के कूटनीतिक प्रयास जारी है। एक अनुमान से इसकी लंबाई 12000 कि.मी. से अधिक होने की है। इस बहुद्देश्यीय मार्ग में दुनिया के 65 देश निवेश के लिए सहमत हैं ।

इस महत्वाकांक्षी योजना के निर्माण में 5 ट्रिलियन डालर खर्च होने का अनुमान है। जिसके  निर्विरोध निर्माण और वैश्विक सहमति बनाने के लिए चीन ने मई 2017 में 130 देशों का सम्मेलन ‘वन रोड वन बेल्ट’ के समर्थन के लिए बुलाया। जिसमें चीन के परंपरागत दुश्मन जापान समेत 70 से अधिक देशों ने भागीदारी की। लेकिन भारत ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया। जिसकी वजह हमारी सहमति के बिना पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साई चीन में इस प्रोजेक्ट को मंजूर कर लेना रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को मान्यता देते हुए ,इसे भूमंडलीकरण के दूसरे दौर की संज्ञा भी दी।जिससे पूरी दुनिया आपस में एक होगी और व्यापार का खर्च भी कम होगा। चीन प्रत्येक दशा में इस प्रोजेक्ट के मार्ग में आने वाले सभी देशों पर दबाव की रणनीति के तहत कार्य कर रहा है। जिसके तहत नेपाल, पाकिस्तान, बंग्लादेश और श्रीलंका में उनकी अपेक्षा से अधिक सरल निवेश किया है। साथ ही श्रीलंका के सामरिक महत्व के बंदरगाह हम्बाटोटा को खुद अधिग्रहित कर लिया। जिसका विकास भारत जापान के साथ मिलकर करना चाहता था।

जहां कोरोना के इस संकट काल में जहां दुनिया मानवता का युद्ध लड़ रही है। वहीं चीन अपने सामरिक महत्व और व्यापार के विस्तार के लिए लगातार दबाव बना रहा है। इस पूरे घटनाक्रम को वन रोड वन बेल्ट में भारत की असहमति के साइड इफेक्ट के रूप में भी देखा जा सकता है। वैसे कूटनीतिक दृष्टि से यह प्रकरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है  क्योंकि कभी दक्षिण एशिया जहां एक दौर में आशियान – सार्क देश विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण कारक होते थे।

लेकिन अब आशियान के अधिकांश देश पाकिस्तान, नेपाल, बंगलादेश, श्रीलंका, सिंगापुर आर्थिक रूप से चीन पर निर्भर होकर उसके सहयोगी बनते जा रहे हैं। यह समय भारत के लिए उत्कृष्ट कूटनीतिक प्रयासों का है। वरना भारत ड्रेगन की चपेट में फंसता दिख रहा है ।

(लेखक उत्तराखंड पुलिस सेवा के अधिकारी हैं और आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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