टेढ़ी नजरनजरिया

Media: हथिनी की मौत! समाज की मानसिकता पर रोये या मीडिया पर !

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Sushil Upadhyay

मीडिया में किस तरह से एजेंडा सेट किया जाता है इसका बहुत प्रभावशाली उदाहरण केरल में हुई हथिनी की हत्या की घटना है। इस अमानवीय घटना की जितनी निंदा की जाए, वह कम है। यकीनन इस घटना से जुड़े कई कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक पहलू है, उन तमाम पहलुओं पर पूरा देश पिछले कई दिन से चर्चा कर रहा है। यह देखने वाली बात यह है कि अचानक एक घटना पर पूरा देश एक समान वक्त में, समान ढंग से और समान संवेदना से कैसे ओतप्रोत हो गया है।

मीडिया का कोई माध्यम ऐसा नहीं है जिस पर इस वक्त केरल की हथिनी केंद्रीय चर्चा में ना हो। यदि कोई समाज, सरकार और व्यवस्था इतनी अधिक संवेदनशील हो जाए कि वह एक हथिनी की अमानवीय ढंग से की गई हत्या पर ऐसी सख्त प्रतिक्रिया दे तो फिर यह मानवता देश और समाज के लिए बहुत उत्कृष्ट उदाहरण है। अब इसका दूसरा पहलू देखिए, भारत में लॉकडाउन लगने के बाद से अब तक 600 से अधिक लोगों की मौत सड़कों पर हुई। ये लोग ट्रेन के नीचे आकर मारे गए, सड़कों पर अन्य हादसों का शिकार हुए, बीमारी के कारण मौत हो गई और कुछ मामलों में ऐसी भी चर्चा है कि कुछ की भूख से मौत हो गई। यद्यपि किसी एक घटना की दूसरी घटना से तुलना नहीं की जा सकती, पर यह सवाल हमेशा मौजूद रहेगा कि क्या हमारी संवेदना इतनी दिखावटी है कि हम एक हथिनी की हत्या पर चरम रूप से उद्वेलित हो जाते हैं, लेकिन 600 लोगों की मौत पर हमारी संवेदना उतनी प्रखर रूप में सामने नहीं आती।

तो क्या यह कोई एजेंडा है जो मीडिया के माध्यम से सेट किया गया है। प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि हथिनी की मौत को लेकर पूरे देश की संवेदना जगा देने का काम एक सुनिश्चित मकसद के लिए किया गया है। इस वक्त देश के सामने मुद्दे क्या हैं, सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि देश में काम करने में सक्षम हर चौथा व्यक्ति बेरोजगार हो गया है। इसका अर्थ यह है कि एक चौथाई परिवारों के पास इस वक्त रोजगार का कोई साधन नहीं है।

पिछले 2 महीने में करोड़ों लोगों को अपने घर जाने के लिए अमानवीय हालात का सामना करना पड़ा है, देश में कोरोना पूरी रफ्तार से फैल रहा है और इस पर जल्द रोक लगने की कोई संभावना नहीं है। अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद नाजुक है और यह अगले कितने समय में उबर पाएगी, अभी अनुमान लगाना भी मुश्किल है। देश में तमाम सरकारों और सरकारी संस्थाओं द्वारा या तो नौकरियों की भर्ती बंद की जा रही है या फिर पहले से कार्यरत लोगों के भत्तों अथवा वेतन में कटौती की जा रही। स्थानीय बाजारों की स्थिति चिंताजनक है। कुल मिलाकर पूरा परिदृश्य धुंधला है। इस धुंधले परिदृश्य में, जहां देश की एक चौथाई आबादी रोजी-रोटी के संकट का सामना कर रही है, वहां हमारे भीतर की मानवीय संवेदना इतने चरम पर अचानक कैसे पहुंच गई कि हम एक हथिनी की हत्या पर उद्वेलित हो गए!

वस्तुतः हमारा यह उद्वेलन चुना हुआ उद्वेलन है, बल्कि यह कह सकते हैं कि यह परोसा गया उद्वेलन है और हम इस उद्वेलन की चपेट में आ गए। पिछले हफ्ते देहरादून जिले में एक घटना हुई, जिसमें एक महिला की विदेशी पालतू कुत्तिया का पड़ोस में रहने वाली महिला ने चोरी-छिपे ऑपरेशन करा दिया। यह मामला पुलिस तक पहुंचा और रिपोर्ट भी दर्ज हुई। वास्तव में यह भी पशु क्रूरता का बड़ा मामला है। हम में से बहुत सारे लोगों को पता होगा कि नगरीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर स्ट्रीट डॉग का बंध्याकरण कराया जा रहा है। इसी तरह से उत्तराखंड, हिमाचल और अन्य पर्वतीय राज्यों में बंदरों का व्यापक पैमाने पर बंध्याकरण कराया जा रहा है। खेतों के किनारे तारों में करेंट छोड़कर जंगली पशुओं को मारा जा रहा और भी बहुत सारे मामले हैं, जिन्हें पशु संरक्षण से जुड़े लोग ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं। चूंकि, भारत में हाथी को लेकर एक अलग तरह का लगाव मौजूद है तो स्वाभाविक है कि केरल की हथिनी को लेकर लोगों के मन में जो भाव जागृत हुआ, वह असामान्य नहीं है।

पर, एक सप्ताह के भीतर पूरे देश के मीडिया माध्यम एक हथिनी की हत्या पर केंद्रित हो जाएं और अन्य महत्वपूर्ण विषयों या मुद्दों, जो लोगों की जिंदगी से जुड़े हुए हैं उन पर विचार करना बंद कर दें या उन पर विचार करना कम कर दें तो इससे यह आशंका बलवती होती है कि मीडिया के माध्यम से एक एजेंडा सेट किया गया है। एजेंडा सेट करने वालों का मकसद बहुत स्पष्ट है कि मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाना है। जिस संकट में इस वक्त पूरा देश गुजर रहा है, वह अभूतपूर्व है और देश का कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो इस संकट से आर्थिक, सामाजिक अथवा शारीरिक दृष्टि से प्रभावित ना हुआ हो।

यहां तक कहा जा रहा है कि आजादी के बाद यह इतना बड़ा संकट है, जिसने पूरे देश को, समाज को और पूरी व्यवस्था को हिला दिया है। जब किसी देश, समाज और व्यवस्था का अस्तित्व दांव पर लगा हो तो क्या वह देश और समाज एक हथिनी की हत्या पर इतना भावुक होकर सोच सकता है ? मेरी टिप्पणी कोई जजमेंट नहीं है, यह केवल एक प्रश्न है और संभव है कि हर व्यक्ति के मन में इस प्रश्न का उत्तर भिन्न प्रकार से आए।

यह मामला वैसा ही है जैसा कि मगध के राजा ने अपने एक कुकृत्य को छुपाने के लिए राज्य की सारी भेड़ों की पीठ पर गीली मिट्टी का लेप लगाकर उन पर जौं उगवा दिए थे और इन तमाम भेड़ों को एक खास वक्त में पूरे राज्य में छोड़ दिया गया था। जैसे ही ये भेड़ें लोगों के सामने आई, जिनकी पीठ पर जौं उगे हुए थे तो लोगों ने राजा के उस कुकृत्य को भुलाकर भेड़ों की पीठ पर उगे जौं की चर्चा शुरू कर दी थी।

एक बार पुनः स्पष्ट कर दूं कि हथिनी की खबर पढ़कर सभी के मन में बहुत बेचैनी और निराशा का भाव पैदा हुआ, लेकिन हम जैसे लोगों के मन में बेचैनी और निराशा का भाव उन लोगों को लेकर भी है जिन्हें पिछले ढाई महीने में अलग-अलग कारणों से अपनी जान गंवानी पड़ी है या जिनका रोजगार चला गया है। फिलहाल, मीडिया के एजेंडे पर ध्यान रखिए और सच्ची खबरों के संपर्क में बने रहिए। यह शिक्षित होने, जागरूक होने, संगठित होने और अपना देश-समाज बचाने का वक्त है। देश बचेगा तो यकीनन तब हाथियों की रक्षा ज्यादा बेहतर ढंग से कर पाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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