By Rahul Singh Shekhawat
देखते ही देखते जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिरदा’ को दुनिया से अलविदा हुए एक दशक पूरा हो गया है। वह अल्सर की बीमारी से जूझते हुए 22 अगस्त 2010 को हल्द्वानी स्थित एक अस्पताल में जिंदगी से जंग हार गए थे। गिरदा की मौत के साथ ही उत्तराखण्ड की ‘अंतरात्मा की आवाज’ खामोश हो गई।
गिरदा एक जनकवि, जनवादी, रंगकर्मी, लेखक और निर्देशक के साथ दिल से बेहतरीन ‘जनवादी’ इंसान थे। उनका पहाड़ की लोक संस्कृति में असाधारण दखल था। मेरी नजर में गिरदा अभिव्यक्ति के बेताज बादशाह थे। गिरदा नामक एक इंसान अपने भीतर इन तमाम खूबियों को समेटे हुए था।
गिरीश तिवारी अल्मोडा के हबालबाग विकास खण्ड के ज्यौली गांव के एक उच्चकुलीन परिवार में 1945 में पैदा हुए। उन्होंने शुरूआती दौर में आजीविका के लिए लखनऊ में क्लर्की की नौकरी की। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि उन्होंने वहां रिक्शा खींचकर भी अपने दिन गुजारे।
दरअसल, वहीं से गिरदा के अंदर जनवाद के बीच अंकुरित होना शूरू हुए। उन्होंने 1967 में भारत सरकार के गीत एवं नाटय प्रभाग में बतौर अनुदेशक नौकरी शुरू की। सही मायनों में यहीे से उनके बहुआयामी जीवन का सिलसिला भी शुरू हुआ। देखते ही देखते तिवारी आम जनमानस में ‘गिरदा’ उपनाम से मशहूर हो गए।
उत्तराखंड में रंगमंच को आधुनिक रूप देने का श्रेय गिरदा को जाता है। उन्होंने लेनिन पन्त, मोहन उप्रेती और प्रोफेसर शेखर पाठक सरीखे लोगों के साथ मिलकर नैनीताल में ‘युगमंच’ नामक संस्था की बुनियाद रखी। उनके निर्देशन में 1976 में ‘अंधायुग’ नामक नाटक का मंचन किया गया। गिरदा ने नाटकों में पहाड़ी लोक तत्वों का अदभुत समावेश किया।
गिरदा ने बाद में ‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ और ‘अंधेरनगरी’ सरीखे नाटकों के जरिए तत्कालीन केंद्र सरकार के थोपे ‘आपातकाल’ का प्रतिरोध किया गया। ऐसे कई मौके आए जब सरकारी नौकरी में रहते हुए गिरदा ने जनसरोकारों के खातिर उसके खिलाफ आवाज बुलन्द की। उन्होंने हमेशा कविताओं और जनगीतों को ही अपने प्रतिरोध का हथियार बनाया।
वैसे गिरदा और आन्दोलन दोनों एक दूसरे के हमेशा पर्याय बने रहेे। 70 के दशक में ‘वन आन्दोलन’ के दौरान वह एक नए अवतार में नजर आए। उनके हुड़का बजाते हुए सड़को पर उतरने के आंदोलनकारी कदम ने समाज में एक नई बहस छेड़ दी। गौरतलब है कि उस दौर में हुड़का कथित तौर पर छोटी जाति वाले लोग ही बजाते थे।
लेकिन एक उच्च कुलीन ब्राहमण होने के बाबजूद उन्होंने इस वाद्ययंत्र को पकड़कर पहाड़ी समाज की जातिवादी व्यवस्था को अप्रत्यक्ष चुनौती दी। धर्म और समाज के ठेकेदारों को गिरदा का वह अन्दाज पंसद नहीं आया। लेकिन उनकी उस बगाबत के पीछे उनकी जनवादी सोच छिपी हुई थी।
गिरदा की 1994 के प्रथक उत्तराखंड राज्य आंदोलन में एक अलग भूमिका रही। उन्होंने कविता, जनगीतों और अदभुत अभिव्यक्ति के माध्यम से पहाड़ी जनमानस में इंकलाब पैदा किया। उस दौरान गिरदा का ‘उत्तराखंड बुलेटिन’ खासा सुर्खियों में रहा। वह आन्दोलन से जुडी हर रोज की घटना को अपनी कविता के माध्यम से लोगों को सुनाते थे।
जब भी राज्य आंदोलन या आंदोलनकारियों के दमन की खबरें आईं, गिरदा को एक नई कविता लिखने और सुनाने का मौका मिला जाता था। उन्होंने भावी उत्तराखंड की तस्वीर भी लोगों को आन्दोलन के वक्त ही दिखा दी थी। लोग यह कहते हुए सुनाई पड़ जाते हैं कि मौजूदा हालातों से तो उत्तर प्रदेश का जमाना भी बहुत ज्यादा बुरा नहीं था।
आम जनमानस के जहन में गिरदा फकत एक कवि के तौर पर रहे, लेकिन वह एक दार्शनिक और दूरदृष्टा भी थे। उन्होंने यह तस्वीर या फिर कहें कि आशंका को राज्य आन्दोलन के दौरान ही लोगों के सामने ला दिया था। जिसकी बानगी उनकी तमाम कविताओं में साफ झलकती है।
मसलन ‘कस होली विकास नीति-कस हमारा नेता’…. , जैता एक दिन त आलो ये दुनी में, पत्थर बेचा-बेचा पानी बेचा-बेची सारी….में दिखाई देती है।
एक जनकवि के तौर पर गिरीश तिवारी ‘गिरदा’ ने उत्तराखण्ड की आंचलिक प्रतिद्वंदता घटाने का कार्य किया। वह अपने व्यक्तित्व और आत्मिक व्यवहार के चलते कुमाऊं और गढवाल के सेतू के रूप में देखे गए। उनकी स्वीकार्यता राज्य के दोनों मण्डलों में बराबर रही।गिरदा और लोक गायक नरेंन्द्र सिंह नेगी की एक साथ मंच पर जुगलबंदी लोगों को खूब पसन्द आई थी।
गिरदा में खासियत थी कि वह बेहद गम्भीर मसले को बड़ी सहजता के साथ अपनी कविताओं के माध्यम से कहने का दम रखते थे। उन्होंने राज्य गठन के बाद अपनी बेखौफ अभिव्यक्ति जारी रखी। उनके दिल दिमाग में पहाड़ और जनसरोकार इस कदर हावी थे कि बीमार होने के बाबजूद वह मसूरी, खटीमा और मुजफफरनगर कांड की बरसी पर कंधे पर झोला डालकर धरने पर बैठना नहीं छोड़ा।
मेरी एक पत्रकार के तौर लंबे समय तक नैनीताल में तैनाती रही। लिहाजा गिरदा की शख्सियत के कई आयामों को देखने का बेहद करीबी मौका मिला। पेशेवर मुलाकात कब और कैसे आत्मीय रिश्ते में तब्दील हो गई पता ही नहीं चला। जिसकी की तासीर ऐसी थी कि ‘पद्मश्री’ प्रोफेसर शेखर पाठक मजाकिया लहजे में गिरदा पर तंज कस दिया करते थे कि तुम्हारी नई कविता शेखावत के टीवी में सुनने को मिलेगी।
मेरी समझ से गिरदा एक जनकवि या फिर महज एक आन्दोलनकारी भर नहीं बल्कि उत्तराखण्ड की अंतरात्मा की आवाज के सच्चे वाहक थे। उनकी गैर मौजूदगी में उत्तराखण्ड में एक अजीब सन्नाटा नजर आता है। वजह ये कि समाज हालातों पर एक बेबाक, सटीक और गंभीर टिप्पणी करने का दम सिर्फ और सिर्फ गिरदा में ही था।
वो शायद इसलिए कि उन्होंने आंदोलन की अगुवाई तो की, लेकिन राज्य गठन के बाद कभी अपने नीजि स्वार्थ पूरे करने का ख्वाब नहीं देखा। खैर! अब मैं उनके साथ अपने अनुभवों की यादों को रोक रहा हूं। वजह ये कि अब मेरे कानों में गिरदा का तकिया कलाम ‘बब्बा’ गूंजने लगा है।
अब जज्बात हावी होने की कोशिश में हैं, जिससे मुझे इस मुद्दे पर अपने शब्दों में तठस्थता खोने की आशंका है। नैनीताल से भवाली की तरफ उतरते हुए विशम्भर नाथ साह ‘सखा दाज्यू’ का केलाखान स्थित घर। जिसके साइड में खाली स्थान पर घाम (धूप) में बैठकर गिरदा की देसी बीड़ी सुट्टा मारते हुए बातें और उनके अंदर का दर्द… जिसका जिक्र नहीं करना चाहूंगा।
आज एक दशक बाद भी गिरदा का जीवंत अहसास खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। मानो अभी मोबाइल पर बोल रहे हैं ‘बब्बा अगर समय है तो इधर आ जाते हो, एक कप चाय साथ पी लेते हैं- कहा….वो भी कह रही थी राहुल बहुत दिन से नहीं आया इधर… बब्बा ये आदेश जो नहीं है, सिर्फ एक आग्रह ठहरा’ !
सलाम गिरदा!
(लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)
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