By Amit Srivastava
हैप्पी टीचर्स डे! लेकिन* शिक्षकों की जितनी छीछालेदर इस ज़माने में हुई और बादस्तूर जारी है उतनी कभी नहीं हुई. उसके अपने विद्यार्थियों के सामने एक पत्रकार बंधु साढ़े बारह इंच के डंडे वाला माइक शिक्षक के मुँह से साढ़े छः मिलीमीटर की दूरी पर स्थापित करके पूछते हैं ‘का ए गुरुजी इस्कूल की स्पेलिंग बताइए’… ‘बताइए… अरे बतावा हो गुरुजी कुतुब मीनार के ऊंचाई केतना बा’… ‘ई बोल दीजिए गुरुजी यही जो लिखे हैं ब्लैक बोर्डवा पे इसका ‘प्रोनाउनसीएसन’ क्या होगा’… ‘कि भारत देश के बित्त मन्तरी कौन हुए’… ‘बताइए अभी बताइए तुरंत अभी… अरे बोलिये’…
गुरुजी को साँप और सियार दोनों सूंघ गया है. उस माइक में उनको प्रिंसिपल, डीआईओएस, डीएम, नानी, मकान मालिक, राशन वाला, सस्ते गल्ले की दुकान का दुकानदार, सबके चेहरे नज़र आने लगते हैं. खुद गुरुजी का चेहरा उस वक्त तक पंचलाइट के मेंटल की तरह हो चुका होता है. नहीं शेप नहीं, भंगुरता की बात कर रहा हूँ. ऐसा कि एक तीली अगर ज़रा दूरी का अनुमान ग़लत होते हुए टच कर जाए तो भरभरा कर बिखर जाए गुरुजी का चेहरा. या आँखे या स्वाभिमान. आत्म विश्वास तो धड़धड़ा कर बिना ‘मे आई कम इन’ की आवाज़ किये घुसते इन लौंडो को देखते ही फुस्स हो चुका था.
फुस्स तो अट्ठारह साल से ‘मौलिक-स्थाई-अस्थाई-तदर्थ-काम चलाऊ’ शब्दों के अर्थ तलाशते, पढ़ाने के लिए बनाए नोट्स से भारी बंडल अर्जी-पिटीशन-काउंटर के दस्तावेज सम्भालने वाले गुरुजी के फेफड़े भी हो चुके हैं. जितनी उम्मीद भर के उनके छात्र उन्हें नहीं देखते उससे ज़्यादा वो ट्यूशन के लिए आने वाले छात्रों की राह को देखते हैं. जिस तरह की पिटी हुई किंतु ज़िंदा आशा से छात्र सप्लीमेंट्री के रिजल्ट खोलते हैं, लगभग उसी कैफ़ियत में गुरुजी मैनेजमेंट से आई डाक के लिफ़ाफ़े टटोलते हैं, क्या पता ‘परमानेंट’ जैसा कोई शब्द चमकता हुआ टपक पड़े.
डिग्री कॉलेजों से लेकर प्राथमिक शिक्षा के मंदिरों (सम्बोधन शब्दों के ओज और आशय हमेशा से चकाचक रहे हैं हमारे) तक टेनेंसी और ‘सबलेट’ व्यवस्था में चल रहे हैं. ऊंची दुकान, भुस भरा हुआ हलवाई और पकवान के बारे में नो कमेंट. इन ऊंची दुकानों में ठेके पर लगे मजदूर उर्फ शिक्षकों को मजदूर के बराबर भी दिहाड़ी नहीं होती. ‘तो जाकर कहीं मजदूरी ही क्यों नहीं कर लेते’ जैसे तर्क भी आज इसी ज़माने के ईजाद किये हुए हैं. तर्क से खारिज हो चुके हमारे समय के. ऐसे तर्कों पर दुःख ज़्यादा होता है या शर्म इस बारे में भी नो कमेंट्स.
स्कूल, कॉलेज और संस्थानों की खुशहाली वाले इकोसिस्टम में तदर्थ, एड हॉक और काम चलाऊ ‘गुरुजीओं’ (जी लगाना परम् कर्तव्य है, श्रद्धा प्रदर्शन है. भले इसकी वजह से शब्द और उसे अपनी छाती पर चिपकाने वाले गुरु, दोनों की टाँग टूट जाए) का दम फूल रहा है, साँस टूट रही है और बिना क्लोरोफिल के इस वटवृक्ष को परजीवी बेल में तब्दील कर देने की साज़िश फलीभूत हो चुकी है. सरकारें अपने हाथ झाड़ चुकी हैं. समाज पहले ही शिक्षा की सुपाड़ी दे चुका है. उसके लिए पढ़ाई, पुस्कालय, परीक्षा, परिणाम बस ‘प’ से शुरू होने वाले शब्द हैं जिनका उदाहरण अनुप्रास अलंकार में दिया जा सकता है. हालांकि अब अलंकृत करने को उसके पास भाषा साहित्य शिक्षा से ज़्यादा कमसिन धर्म-ध्वज-धुरंधर, राष्ट्र-राज-रैली, गाय-गोबर-गण्डा, ट्वीट-टंकार-टनटनाटन जैसे विषय हैं.
ठीक आँखों के सामने झड़ी हुई धूल का बवंडर है. गुरुजी की आँखे मिचमिचा रही हैं. ना बंधु, आपकी भी. आपने अभी-अभी ठहाके के सीमांत पर जो साँस खींच आलाप लिया है न उसमें शिक्षक नहीं शिक्षा नामक चिलबिल की खोखल चिपचिपा रही है.
मुझे तो ‘बचाओ बचाओ’ जैसी आवाज़ सुनाई दे रही है, आपको नहीं? तो जो सबको सुनाई देता है वही बोल देते हैं-
हैपी टीचर्स डे!
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‘लेकिन’ एक समुच्चयबोधक शब्द है इससे कोई वाक्य शुरू नहीं होता.’ ऐसा मेरे एक गुरु ने कहा था लेकिन मैं कहना चाहता हूँ गुरुजी हो सकता है, ख़ासकर तब, जब वो आप जैसे शिक्षकों के बारे में हो!
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा IPS के अधिकारी हैं और इस आलेख में उनके विचार हैं)
Photo: Navendu Mathpal
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