(Judiciary vs Government Tussle) पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार से मुख्य निर्वाचन आयुक्त के चयन प्रक्रिया का ब्यौरा मांगा। न्यायाधीशों की नियुक्ति समेत कई और मुद्दों पर पर मोदी सरकार और न्यायपलिका के बीच टकराव नजर आया।
By Dr Ved Pratap Vaidik
भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका में आजकल भिड़ंत के समाचार गर्म हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) का कहना है कि जजों की नियुक्तियों में सरकार का टांग अड़ाना बिल्कुल भी उचित नहीं है। जबकि मोदी सरकार (Modi Govt) के कानून मंत्री किरन रिजिजू (Kiren Rijiju) का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश-परिषद (collegium) अगर यह समझती है कि सरकार जजों की नियुक्ति में टांग अड़ा रही है तो वह उनकी नियुक्ति के प्रस्ताव उसके पास भेजती ही क्यों है? कानून मंत्री के इस बयान ने हमारे जजों को काफी नाराज कर दिया है। वे कहते हैं कि जजों की नियुक्ति में सरकार को आनाकानी करने की बजाय कानून का पालन करना चाहिए।
Judiciary vs Government Tussle
कानून यह है कि न्यायाधीश परिषद जिस जज का भी नाम न्याय मंत्रालय को भेजे, उसे वह तुरंत नियुक्त करे या उसे कोई आपत्ति हो तो वह परिषद को बताए लेकिन लगभग 20 नामों के प्रस्ताव कई महिनों से अधर में लटके हुए हैं। न सरकार उनके नाम पर ‘हाँ’ कहती है और न ही ‘ना’ कहती है।
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अजब पर्दा है कि वह चिलमन से लगी बैठी है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने उस 99 वें संविधान संशोधन को 2015 में रद्द कर दिया था, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अधिकार दिया गया था कि वह जजों को नियुक्त करे।
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इस आयोग में सरकार की पूरी दखलंदाजी रह सकती थी। अब पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने 3-4 माह की समय-सीमा तय कर दी थी, उन नामों पर सरकारी मोहर लगाने की, जो भी नाम न्यायाधीश परिषद प्रस्तावित करती है।
वकीलों के जज बनने में सियासी दखलंदाजी है !
इस वक्त सरकार ने 20 जजों की नियुक्ति-प्रस्ताव वापस कर दिए हैं, उसमें एक जज घोषित समलैंगिक हैं और वह भी ऐसे कि जिनका भागीदार एक विदेशी नागरिक है। इसके अलावा सरकार और सामान्य लोगों को भी यह शिकायत रहती है कि ये जज परिषद अपने रिश्तेदारों और उनके मनपसंद वकीलों को भी जज बनवा देती है।
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न्यायपालिका में राजनीति की ही तरह भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार किसी न किसी तरह पनपता रहता है। जजों की नियुक्ति में सत्तारुढ़ नेताओं की भी दखलंदाजी भी देखी जाती है। वे अपने मनपसंद वकीलों को जज बनवाने पर तुले रहते हैं और जो जज उनके पक्ष में फैसले दे देते हैं, उन्हें पुरस्कार स्वरूप पदोन्नतियां भी मिल जाती हैं।
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ऐसे जजों को सेवा-निवृत्ति के बाद भी राज्यपाल, उप-राष्ट्रपति, किसी आयोग का अध्यक्ष या राज्यसभा का सदस्य आदि कई पद थमा दिए जाते हैं। सरकारी हस्तक्षेप के ये दुष्प्रभाव तो सबको पता हैं
सरकार को न मिले न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार !
लेकिन यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सीधे सरकार करने लगेगी तो लोकतांत्रिक शक्ति-विभाजन के सिद्धांत की घोर अवहेलना होने लगेगी। यदि सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया जाए तो क्या न्यायाधीशों को भी यह अधिकार दिया जाएगा कि वे राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की नियुक्ति में भी हाथ बंटाएं?
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अमेरिका जैसे कुछ देशों में वरिष्ठ जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है। वे जीवनपर्यंत जज बने रह सकते हैं। भारत की न्यायिक नियुक्तियां अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक हैं। वे संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल भी हैं। सरकार को जजों की नियुक्ति पर या तो तुरंत मोहर लगानी चाहिए या न्यायाधीश परिषद के साथ बैठकर स्पष्ट संवाद करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)
Pic साभार /रिजिजू/एफबी
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