Yogesh Bhatt
- उत्तराखंड में ‘प्रमोशन में आरक्षण’ के मुद्दे पर जनरल और ओबीसी हड़ताल पर हैं।
- लेखक दो फाड़ हुए कर्मचारियों के बीच उभरे मनभेद को बेहद गंभीर बता रहे हैं।
- इस मुद्दे पर सरकार और विपक्ष दोनों का रवैया गैरजिम्मेदाराना नजर आता है।
विधानसभा सत्र के मौके पर शुरू हुई प्रमोशन में आरक्षण के विरोध और समर्थन को लेकर उत्तराखंड में ‘जंग’ छिड़ी है। सचिवालय से लेकर जिला और ब्लाक मुख्यालय ‘अखाड़े’ बने हैं। कर्मचारी वर्ग अब सिर्फ कर्मचारी नहीं रह गया है, वह सामान्य और आरक्षण वाले कर्मचारी में बंट गया है। ऊपर से लेकर नीचे तक सीधे तौर पर दो फाड़ हो गए हैं।
मतभेद अब मनभेद में तब्दील हो गए हैं, सामान्य वर्ग का कर्मचारी हड़ताल पर है, दफ्तरों में कामकाज ठप है। राज्य में जाति और वर्ग के नाम पर कर्मचारी संगठन बन गए हैं, कर्मचारी नेता राजनीतिज्ञों की भाषा बोलने लगे हैं। इस पूरे घटनाक्रम में सरकार, सिस्टम, कर्तव्य, गरिमा, मर्यादाएं, नियम, आचारण सब कुछ हाशिए पर है। कर्मचारी नेता खुलेआम राजनैतिक दलों और संगठनों को लड़ाई में साथ आने की अपील कर रहे हैं।
कोई परिवार सहित आंदोलन में शामिल होकर अपनी राजनैतिक ताकत दिखाने की बात कर रहा है तो कोई सामूहिक धर्मांतरण की धमकी दे रहा है। सरकार पशोपेश में है और विपक्ष असमंजस में। चिंता किसी को भी राज्य के सिस्टम और उसके सौहार्द की नहीं, बल्कि चिंता है सियासी गणित और उसके नफा नुकसान की।
दरअसल, संजीदा सरकारें और सजग विपक्ष चाहते तो काफी पहले ही इस मसले को पूर्ण विराम दिया जा सकता था, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि न सरकार संजीदा रही और न विपक्ष ही सजग रहा।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कहा कि पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है तो इसके बाद से मुददा और गर्मा गया है। जो माहौल इन दिनों सरकारी दफ्तरों में नजर आ रहा है उसे देखते हुए साफ नजर आ रहा है कि उत्तराखंड तेजी से एक नयी आपादा की ओर बढ़ रहा है। एक तरफ सामान्य जातियां, तो दूसरी ओर हैं अनुसूचित जाति और जनजातियां।
विवाद प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था से शुरू होकर पूरे आरक्षण, कार्य कुशलता और दक्षता पर सवाल तक पहुंच चुका है। बात और आगे बड़ी तो असर पूरे सामाजिक तानाबाने, आपसी सौहार्द और संस्कृति पर पड़ेगा।
चलिए, पहले मसले को समझते हैं। मसला यह है कि सरकारी पदों पर प्रमोशन में एससी-एसटी को आरक्षण की व्यवस्था को लेकर अनिर्णय की स्थिति में तमाम विभागों में पदोन्नतियों पर रोक लगी हुई है। सरकार के इस निर्णय से कर्मचारियों में नाराजगी है तो वहीं दूसरी ओर आरक्षण का रोस्टर बदले जाने से एससी-एसटी वर्ग में आक्रोश है।
सरकार ने डेढ़ दशक बाद नयी रोस्टर प्रणाली में पहले पद को एससी आरक्षित रखने की व्यवस्था को खत्म कर दिया है। नए रोस्टर में छटे और ग्यारहवें पद को ही आरक्षित रखा गया है। सरकार के लिए हालात ऐसे हैं कि, न निभाना आसाना और न तोड़ना आसान। कर्मचारियों का एक वर्ग कहता है कि प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था समाप्त की जाए और पदोन्नति पर लगी रोक हटायी जाए। तो दूसरे वर्ग की मांग है कि राज्य प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था को स्थापित करे और रोस्टर की पुरानी व्यवस्था को लागू करे।
मुद्दा दरअसल पेचीदा तो है मगर उससे भी कहीं ज्यादा यह सियासी बन चुका है। वैसे भी हमारी सियासी व्यवस्था में धर्म और जाति के नाम पर समाज को बांटना और फिर उसमें वोटों की फसल खड़ी करना बहुत पुराना सियासी दांव है। यहां दिक्कत यह है कि कर्मचारियों के नेता खुद ही मुद्दे को सियासी बनाने पर तुले हैं।
कर्मचारियों के मुद्दे से शुरू हुई यह जंग अब घर-घर पहुंच गयी है। सामान्य वर्ग के कमर्चारी ओबीसी वर्ग के कर्मचारियों का साथ लेकर बेमियादी हड़ताल पर चले गए हैं। उधर दूसरा वर्ग भी हर हथकंडा अपना रहा है। सरकार लाचार नजर आ रही है। सरकार तो मसले को सुलझाने के लिए केंद्र और कोर्ट से उम्मीद लगाए बैठी है। उधर सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सरकारी नौकरियों में आरक्षण का दावा करना मौलिक अधिकार नहीं है, लिहाजा कोई भी अदालत राज्य सरकारों को एससी और एसटी वर्ग के लोगों को आरक्षण देने का निर्देश नहीं जारी कर सकती।
आरक्षण देने का यह अधिकार और दायित्व पूरी तरह से राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर है कि उन्हें नियुक्ति या पदोन्नति में आरक्षण देना है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि राज्य सरकारें इस प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने के लिए बाध्य नहीं हैं। यहां यह बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज करते हुए की, जिसमें पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए राज्य सरकार को एससी और एसटी के आंकड़े जमा करने के निर्देश दिए गए थे। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद तो उत्तराखंड समेत देश के अन्य राज्यों में भी घमासान बढ़ा है।
इस टिप्पणी को आरक्षण व्यवस्था पर खतरे के तौर पर देखा जा रहा है। जहां तक प्रमोशन में आरक्षण के विवाद का सवाल है तो यह नया नहीं है। अनुसूचित जाति-जनजाति कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, मुंबई, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर अलग-अलग फैसले दिए हैं। इतना ही नहीं, उन फैसलों के खिलाफ दायर अपीलों पर सुप्रीम कोर्ट ने भी अलग-अलग आदेश दिए हैं।
मगर पूरे मामले की गहराई में उतरें तो इसके मूल में साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एम नागराज बनाम भारत सरकार मामले में दिया गया फैसला नजर आता है।
उत्तराखंड में इसकी शुरूआत तब हुई जब साल 2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जब प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगायी। बहुगुणा सरकार ने यह रोक उच्च न्यायालय नैनीताल के एक फैसले के तहत लगायी। हाईकोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण पर रोक संबंधी निर्णय एम नागराज बनाम भारत सरकार पर के फैसले को ही आधार बनाकर दिया था।
चलिए संक्षेप में नागराज केस को जानने की कोशिश करते हैं, दरअसल एम नागराज ने एससी एसटी समुदाय को पदोन्नति में मिलने वाले आरक्षण की संवैधानिक वैधता को ही चुनौती दी थी, जिस पर साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया था कि अनुसूचित जाति-जनजाति के वर्गों को संविधान के 16(4) के तहत आरक्षण दिया जा सकता है, मगर इसके लिए सरकार को कुछ शर्तों को पूरा करना होगा।
प्रमोशन में आरक्षण देने से पहले सरकार को इसके लिए पहले यह आंकड़ा जुटाना होगा कि समाज का यह तबका कितना पिछड़ा रह गया है ? सरकारी नौकरियों में इनका प्रतिनिधित्व कितना है? और प्रमोशन में अगर इस वर्ग को आरक्षण मिलता है तो इससे सरकार के कामकाज पर क्या फर्क पड़ेगा ?
सरकारें चाहती तो संविधान पीठ के इस फैसले पर अमल करते हुए आंकड़ा जुटाती और वास्तविकता के आधार पर सभी वर्गों को विश्वास में लेते हुए निर्णय लेती। मगर उत्तराखंड में क्या, किसी भी राज्य की सरकार ने ऐसा नहीं किया, उल्टा राज्य सरकारों ने बिना आंकड़े जुटाए ही प्रमोशन में आरक्षण देना जारी रखा।
इसी आधार पर पहले साल 2010 में राजस्थान हाईकोर्ट ने राज्य में प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगायी और इसके बाद वर्ष 2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट और 2012 में नैनीताल हाईकोर्ट ने भी पदोन्नति में आरक्षण के फैसले को रद्द कर दिया। इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार ने भी प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगा दी। इसके बाद बीते दस सालों में कई और फैसले आ चुके हैं।
इन फैसलों के क्रम में प्रमोशन में आरक्षण पर तो रोक है ही, राज्यों में इसके चलते सामान्य पदोन्नतियों पर भी प्रशासनिक रोक लगी हुई है, हजारों की संख्या में कर्मचारियों को इसका नुकसान उठाना पड़ा है।
अब स्थिति यह है कि मसला पूरी तरह राजनैतिक बन चुका है। सरकारें इसे सियासी नफा नुकसान के तराजू में रखकर तौल रही हैं। यही कारण है कि उत्तराखंड में इस प्रकरण पर न्यायालय के निर्णय के बाद सरकार की ओर से पहले सवानिवृत्त मुख्यसचिव ‘इंदु पाण्डेय समिति’ और उसके बाद गठित ‘इरशाद आयोग’ की रिपोर्टों पर भी आज तक निर्णय नहीं लिया गया।
उत्तराखंड में सरकार की मंशा पर यहीं से सवाल उठता है। आखिर, जब समिति और आयोग का गठन किया गया तो उनकी रिपोर्टों पर अमल क्यों नहीं किया गया?
इरशाद आयोग की तो रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की जा रही है, जबकि इंदु पाण्डेय समित की रिपोर्ट के मुताबिक तो राज्य में आरक्षण की जो तय व्यवस्था है, उसके हिसाब से आरक्षित वर्ग नौकरियों में है ही नहीं।
यहां बात किसी के समर्थन या विरोध की नहीं थी, यहां बात नैसर्गिक न्याय और व्यवस्था की थी। उत्तराखंड में अनुसूचित जाति को 19 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को चार फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इंदु पाण्डेय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सत्यता यह है कि दस साल पहले ग्रुप ए, बी, और सी में कार्मिकों की जो स्थिति थी उसमें अनुसूचित जाति की संख्या 12.5 फीसदी और जनजाति वर्ग के कार्मिकों की संख्या तीन फीसदी थी।
दुर्भाग्य यह है कि सरकार ने इन आंकड़ों पर गौर नहीं किया, उल्टा अप्रैल 2019 में हाईकोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने का शासनादेश निरस्त किया तो प्रदेश में पदोन्नतियों पर ही रोक लगा दी। इतना ही नहीं, नवंबर 2019 में हाईकोर्ट में रिव्यू पिटीशन में कोर्ट ने चार माह में एससी कर्मचारियों का डाटा तैयार करने के निर्देश दिये तो सरकार इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट पहुंच गयी।
निसंदेह सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के बाद विवाद और गहरा गया है। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण लागू करना या न करना राज्य सरकारों के विवेक पर निर्भर करता है, मगर सच यह है कि यह किसी भी राज्य सरकार के ‘बूते’ की बात नहीं। आज स्थति यह है कि कोई अदालत एससी और एसटी वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के आदेश जारी नहीं कर सकती। दूसरी तरफ कोई सरकार भी ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। नतीजा सामने है।
सरकारें ही अगर सख्त होती तो राज्य में कर्मचारियों के जातिगत संगठन न खड़े हो रहे होते। हकीकत यह है कि बात चाहे आरक्षण के समर्थन की हो या फिर विरोध की, सही दिशा में कोई नहीं है। साढ़े तीन लाख कर्मचारियों के साथ ही प्रदेश की एक करोड़ से ज्यादा आबादी को इस संघर्ष में झौंकने की कोशिश हो रही है। आज प्रमोशन में आरक्षण लागू हो जाए या खत्म हो जाए, कुल जमा कितने लोगों को इसका फायदा पहुंचना है! संख्या चंद दहाई में होगी, हो सकता है सैकड़ा पार हो जाए, मगर नुकसान राज्य के लाखों लोगों का होना है।
कभी सोचा है कि आखिर ये किस आरक्षण के विरोध और समर्थन की लड़ाई लड़ी जा रही है?
किस भविष्य की बात कर रहे हैं लड़ने वाले? आरक्षण तो तब होगा न जब नौकरियां होंगी! जब सरकारी नौकरियां ही नहीं होंगी तो कैसा आरक्षण?
विडंबना देखिए, पदोन्नति की बात तो करते हैं क्योंकि उससे अपना हित जुड़ा है, मगर नौकरियां बढ़ाने की बात कोई नहीं करता। अब बताइये, जो नौकरी की बात नहीं करता वह आने वाली पीढ़ी का हितैषी कैसे हो सकता है ?
ध्यान रहे अब जो नौकरियां हैं भी, वह न सामान्य वर्ग के लिए आसान हैं और न आरक्षित वर्ग के लिए। प्रतिस्पर्धा हर जगह है। प्रतिभाएं सामान्य वर्ग में हैं तो आरक्षित वर्ग भी प्रतिभाएं कम नहीं हैं। जरा अपने इर्द-गिर्द नजरें घुमाइये, बहुत से बड़े नाम ऐसे नजर आएंगे जो आरक्षित वर्ग से होने के बावजूद अपनी प्रतिभा के दम पर पहचान बनाए हुए हैं।
ऐसे में अगर किसी की भी दक्षता या कार्यकुशलता पर कोई टिप्पणी या सवाल होता है, वह जायज नहीं ठहराया जा सकता। न्याय की बात तो यह है कि विरोध अगर आरक्षण व्यवस्था का है तो फिर हर आरक्षण का विरोध किया जाना चाहिए। विरोध सिर्फ एससी-एसटी को आरक्षण का ही क्यों? आरक्षण का लाभ तो प्रदेश में ओबीसी को भी मिल रहा है, मगर अपनी ताकत बढ़ाने के लिए ओबीसी को सामान्य वर्ग ने अपने साथ मिलाया हुआ है। क्या है यह? सियासत नहीं तो क्या है यह?
जायज आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों के नाम पर संगठन बनाना भी नहीं है। आरक्षण सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की एक व्यवस्था है, अधिकार कतई नहीं । सच्चाई यह है कि जाति व्यवस्था के लिहाज से समाज के सबसे निचले पायेदान पर एससी और एसटी हैं। इसी सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिहाज से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गयी।
दुर्भाग्य यह है कि आरक्षण मुद्दा बन गया जबकि मुद्दा सामाजिक पिछड़ापन होना चाहिए था। मुद्दा आरक्षण को खत्म करना नहीं, जातीय व्यवस्था को खत्म करना होना चाहिए था। सच यह है कि सियासत इस ओर से भी बराबर है, एससी-एसटी के नाम पर कोई यहां भी खेल रहा है।
चिंता आंदोलन की नहीं है, आंदोलन तो खत्म हो जाएगा, चाहे वह सरकार के फैसले के पर हो या फिर न्यायालय के आदेश पर। मगर क्या गारंटी है कि सरकारी दफ्तरों से शुरू हुई यह जंग पूरी आबादी में नहीं फैलेगी? क्या गारंटी है कि हमारा सामाजिक तानाबाना बना रहेगा, सामाजिक समरसता और सामूहिक संस्कृति पर आंच नहीं आएगी ?
आखिर यह तय तो करना ही होगा कि क्या जरूरी है, समाजिक तानेबाने का बना रहना या पदोन्नतियां ? कोई तो है जो इस सबको ‘शह’ दे रहा है। सोचिए, यह जंग, यह आर-पार की लड़ाई का एलान और यह नफरत आपको-हमको-इस राज्य को कहां ले जाएगी ?
(योगेश भट्ट उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं और दो दशक तक प्रिंट मीडिया की मुख्यधारा से जुड़े रहे। इस लेख में उल्लेखित उनके निजी विचार हैं )
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