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Tablighi Jamat: कोरोना से लड़ाई के लिए ‘मजहबी बहस’ से बचने की जरूरत है

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Rahul Singh Shekhawat

बेशक जहालती हरकत की वजह से तबलीगी मरकज के जमातियों ने ना सिर्फ अपनी बल्कि संपर्क में आने वालों की जिंदगी को दांव पर लगा दिया। जिसमें शरीक हुए लोगों में संक्रमण की तादाद ने लॉकडाउन की भावना पर एक हद तक पानी फेर दिया है। जिसके लिए जिम्मेदारी, जवाबदेही और कार्रवाई सुनिश्चित होनी ही चाहिए। आखिरकर देशव्यापी लॉकडाउन में ये कैसे हुआ और किसने करने दिया।

लेकिन ये क्या हुआ अचानक जानलेवा कोरोना वायरस से एकजुटता के साथ लड़ने का विमर्श ही बदल गया। कपड़े की पहचान में माहिर बाबा तो खामोशी अख्तियार किए हैं। लेकिन उनके अनुयायी मैदान के जंग में आ खड़े हुए। ऐसा लगा जनता कर्फ्यू के बाद उनकी जुबान और उंगलियों का ‘लॉक डाउन’ टूट गया हो। सोशल मीडिया के रण ‘हेशटेग’ की नई मिसाइलों की बरसात शुरू हो गई।

गजब इत्तेफाक है कि इसी हल्ले के बीच इंसानियत की सेवा वाले सिखों के एक दिल्ली स्थित गुरुद्वारे में 200 लोगों का जमावड़ा की बात सामने आ गई। मुझे नहीं मालूम बिना कपड़े देखे लंगर छकाने वाले उस गुरुद्वारे में दर्जनों या सैकड़ों लोग ‘छिपे’ थे या ‘फंसे’ हुए थे। इसके पहले लॉकडाउन में फांके और महामारी में मरने के खौफ ने मजदूर और कामगारों को बदहवास कर दिया।

आलम ये था कि मजदूरी के लिए पसीना बहाने वाले हजारों-हजार मजदूरों का रैला एक से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर घरों की तरफ सड़कों पर पैदल ही चल पड़ा। जिसे देख सुप्रीम कोर्ट का कलेजा पसीजा कोरोना के वायरस से खतरनाक डर है। जिसे दूर करने के लिए धार्मिक और सामाजिक नेताओं का सहारा लो।

उसके पहले जनता कर्फ्यू की अपार सफलता की खुशी में कई शहरों में ‘घंटा-थाली’ शोभा यात्राएं निकाली गईं। जिसे देखकर मानव सभ्यता बचाने को घर में कैद किसी जिम्मेदार भारतीय का कलेजा नहीं पसीजा। अरे याद आया किसी एक शोभायात्रा का नेतृत्व बेअंदाज कपड़े वाले नहीं बल्कि DM और SP सरीखे ओहदेदार कर रहे थे।

वैसे इन घटनाओं की ‘क्रोनोलोजी’ ये है कि सभी 21 दिवसीय राष्ट्रीय लॉकडाउन के रहते घटित हुईं। बेशक सबकी तासीर और हालात जुदा हैं, लेकिन जमावड़े से कोरोना वायरस की श्रंखला तोड़ने को ‘सोशल डिस्टेंस’ अभियान को तो नुकसान हुआ। लेकिन दिलचस्प ये है कि इडियट या गद्दार सरीखे हैशटैग कपड़े देखकर चलाए गए।

चलिए अब वापस जलसे पर आता हूं, जिसके चक्कर में बहुतेरे अतिउत्साही लोग तबलीगी मरकज और पाक हजरत निजामुद्दीन औलिया के अंतर को ही भूल गए। अगर संचालकों ने समझदारी दिखाई होती तो कोरोना वायरस से दर्जनभर जमातियों की जानेें बच जाती और अन्य को संक्रमण से बचाया जा सकता था। खैर अब चिंतन इस पर होना चाहिए कि उनके संपर्क में आए लोगों को कैसे बचाया जाए।

इस धर्मान्धता में हुई गलती के नुकसान की भरपाई पूर्वाग्रही बहस या सिरे से एक कौम को जिम्मेदार ठहराने से नहीं होगी। इस मजहबी धुंध को हटाने के लिए धर्मगुरुओं और सम्बंधित पक्ष के सयाने लोगों की मदद लेनी चाहिए ताकि आगे और नुकसान ना हो। वैसे कोरोना से लड़ने के लिए तमाम मस्जिदों के शाही इमामों ने घरों में नमाज अदा करने की सराहनीय अपील कर चुके हैं।

लिहाजा वक्त की नजाकत को देखकर सियासत करनी चाहिए। याद दिलाना चाहूंगा कि शुरुआत में पोलियो ड्रॉप्स को लेकर तमाम भ्रांतियां थीं। लेकिन पूर्ववर्ती सरकार ने धर्मगुरुओं को भरोसे में लेकर देश को पोलियो से मुक्त कराने में सफलता हासिल की। देश वैश्विक महामारी से लड़ रहा है। जिसमें एकजुट होकर जीत हासिल करनी है।

(लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)

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