नजरिया

Police: तो ‘कोरोना संकट’ दामन साफ करने का अवसर है!

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Editor’s Note: देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान पुलिस का आचरण जुदा अंदाज में नजर आया। कहीं रास्तों में फंसे लोगों को अपने हाथ खाना बांटती दिखी, तो कहीं नमाज पढ़कर निकल रहे लोगों पर लाठियां मारती भी नजर आई। लेकिन लेखक लॉकडाउन को पुलिस की छवि सुधारने के मौके पर देख रहे हैं।

Pramod Sah

भारतीय पुलिस 1861 में ब्रिटिश साम्राज्य की येन केन प्रकारेण रक्षा एवं उसके हितों को संरक्षण के लिए बनाई गई। उस पर देश की आजादी के संघर्ष में क्रूर दमन के बहुत बदनुमा दाग लगे हैं।  आजादी के बाद ब्रिटिश उपनिवेश का संरक्षण करने वाली पुलिस का संवैधानिक उद्देश्य बदल कर एक लोक कल्याणकारी राज्य में ‘जनमित्र रूप में स्थापित हो गया।

लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय पुलिस का आज तक  चारित्रिक रूपांतरण ना हो पाना बड़ी समस्या बन चुका है।  पुलिस का उद्देश्य तो बदल गया लेकिन समुचित रूप से उसके संस्कार , कार्य संस्कृति , बुनियादी ढांचा नहीं बदल पाया।  जिसके चलते तमाम कोशिशों के बाद भी समय-समय पर जनता के समक्ष पुलिस का जो चेहरा पेश होता है, वह जनता के हितों के बजाय सामंती हितों की पूर्ति करता अधिक दिखता है।

भारत की आजादी के 70 सालो मेंअब तक गठित 8 पुलिस सुधार आयोग की तमाम संस्तुतियां व्यवहारिक तौर पर अमल करती नजर नहीं आती। सर्वोच्च न्यायालय एवं मानवाधिकार आयोग के निर्देशो के बाद भी भारतीय पुलिस के दमनात्मक व्यवहार की कहानियां आए दिन सुर्खियां बटोरती ही रहती हैं। जिसकी रोशनी में दुनिया के मनोवैज्ञानिकों के लिए आज भी भारतीय पुलिस का यह व्यवहार एक पहेली बना है।

कैसे समाज के मध्यम और निम्न मध्यम आय वर्ग से
आने वाली पुलिस सर्वाधिक क्रूरता अपने ही सामाजिक आय वर्ग के मजदूर ,मजबूर और मजलूमो पर ही करती है। आखिर पुलिस को लहरों को गिनने, गधे का कान काट फिर जोड़ देने और रस्सी का सांप बना देने की कला किस ट्रेनिंग में तो नहीं सिखाई जाती है। हालांकि, यह सिखाया तो नहीं जाता,  फिर यह विरोधाभासी चरित्र क्यों बार-बार सामने आता है?

बेशक अपने कार्य व्यवहार में संवेदनशीलता की कमी के कारण पुलिस जनता का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हो पाई है। एक अध्ययन के मुताबिक पुलिस के संपर्क में आने वाले 100 व्यक्तियों से मात्र 25 व्यक्ति ही पुलिस का भरोसा करते हैं।  जबकि सेना के मामले में तो यह प्रतिशत 54 हो जाता है. दिन रात विषम परिस्थितियों में काम करने के बाद भी पुलिस की विश्वसनीयता का संकट लगातार बना हुआ है।

आज कोरोना के लॉक डाउन के मध्य जहां देश के विभिन्न हिस्सों से दो अलग-अलग तरह की पुलिस की तस्वीरें वायरल हो रही हैैं। एक ओर पुलिस का दमनात्मक चेहरा है, जो बगैर किसी कारण के निरीह जनता पर लाठी बरसा जुर्म करता हुआ दिख रहा है। वहीं दूसरी ओर बहुत बड़े पैमाने में पुलिस का मानवीय चेहरा भी दिख रहा है। पुलिस ने ना सिर्फ घर-घर जाकर लोगों को राहत पहुंचाने का काम किया बल्कि बेघर और जरूरतमंदो को सहारा भी दिया है।

यह विरोधाभास भारतीय पुलिस की छवि का अभिन्न अंग
है। जब लॉक डाउन के मध्य सरकार की तमाम एजेंसी बैठ गई हैं। जब व्यवस्था का सब कुछ डूब रहा हो तो उम्मीद के एक टापू के रूप में सब जगह व्यवस्था के प्रतीक के रूप में पुलिस ही दिख रही है। पुलिस अपनी निर्धारित उद्देश्यों से हटकर मानवीय ड्यूटी भी कर रही है। चाहे एंबुलेंस उपलब्ध कराने का काम हो या राशन -दवा की सप्लाई व्यवस्था हो। या फिर बाजार में सोशल डिस्टेंसिंग के लिए घेरे बनाने का काम हो, सब कुछ मानो पुलिस के जिम्मे आ गया है।

यकीनन कोरोना के दौर में यह पुलिस की एक उजली तस्वीर है। राष्ट्रव्यापी संकट के चलते लॉकडाउन के समय पुलिस को सदियों से अपने साथ चली आ रही नकारात्मक छवि को धोने का एक ऐतिहासिक अवसर मिला है। अगर इस संकट की घडी में पुलिस संयम और विवेक से अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकेगी तो निश्चित रूप से संकट का यह कालखंड भारतीय पुलिस की छवि के लिए एक चमकदार मेडल होगा।

हालांकि  देश के कुल 21 लाख 45 हजार पुलिस बल में उत्तराखंड पुलिस का हिस्सा बहुत छोटा है। लेकिन देश की सबसे युवा और शिक्षा के राष्ट्रीय औसत में आगे होने के कारण उत्तराखंड पुलिस ने इस अवसर का लाभ लेना शुरू कर दिया है। यकीनन मानव सभ्यता पर कोरोना के साये में यह शुभ संकेत है।

(लेखक उत्तराखंड पुलिस सेवा UPS के अधिकारी हैं, इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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