BrijMohan Joshi

हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख त्यौहार होने के साथ साथ यहां की संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी है। इस त्यौहार का सम्बन्ध सामाजिक सौहार्द के साथ साथ कृषि व मौसम से भी है। हरेला, हरियाली अथवा हरकाली हरियाला का समानार्थी है। इस पर्व को मुख्यतः कृषि और शिव विवाह से जोड़ा जाता है। देश धनधान्य से सम्पन्न हो, कृषि की पैदावार उत्तम हो, सर्वत्र सुख शान्ति की मनोकामना के साथ यह पर्व उत्सव के रुप में मानाया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि हरियाला शब्द कुमाऊँनी भाषा को मुँडरी भाषा की देन है।
इस त्यौहार की एक अन्य विशेषता यह है कि पूजा के लिए घरों की महिलाएँ या कन्याएँ मिट्टी की मूर्तियाँ बनाती हैं जिन्हें डिकार या डिकारे कहा जाता है। लाल या चिकनी मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इसमें शिव, पार्वती, उनके पुत्र शिव परिवार के सदस्य और उनके वाहन भी शामिल होते हैं। माना यह भी जाता है कि इसी माह में शिव पार्वती का विवाह हुआ। दूसरा कारण यह भी है कि पारिवारिक सुख शांति त्रिदेवों में शिव शंकर के पास ही है और उनकी कृपा से सभी की मनोकामना पूरी होती है।
समान्यतया हरेला साल में तीन बार मनाया जाता है।
१. चैत्र: चैत्र मास के प्रथम दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है।
२. श्रावण: आषाढ़ मास के २२वें दिन बोया जाता है और १० दिन बाद काटा जाता है।
३. आशिवन: आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।
चैत्र व आश्विन मास में बोया जाने वाला हरेला मौसम के बदलाव के सूचक है।
चैत्र मास में बोया/काटा जाने वाला हरेला गर्मी के आने की सूचना देता है,
तो आश्विन मास की नवरात्रि में बोया जाने वाला हरेला सर्दी के आने की सूचना देता है।
बोने के दिन से दसवे दिन हरेला (हर्याव) काटा जाता है तथा इसे सबसे पहले देवताओं को अक्षत, रोली(पिठियां या पिठाई), चन्दन आदि के साथ विधिपूर्वक चढ़ाया जाता है। इसके बाद घर का वरिष्ठतम सदस्य या फ़िर कुलपुरोहित घर के सभी सदस्यों के हरेला लगाता है, हरेला लगाने से तात्पर्य है कि उनके सर व कान पर हरेले के तिनके रखे जाते है।
हरेला लगाने वाला हरेला लगाते समय स्थानीय भाषा में शुभकामनाएं भी देता है। जिसका मन्त्रोच्चार के समान पाठ किया जाता है। इसमें उसके दीर्घायु होने, समृद्धि एवं सुख की कामना की जाती है। छोटे बच्चो को हरेला पैर से ले जाकर सर तक लगाया जाता है। इसके साथ ही शुभकामना गीत “जी रये-जाग रये” गाया जाता है।
लाग् हरेला, लाग् दसैं, लाग् बगवाल|
जी रये जागी रये, धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये|
सूर्ज जस तराण हो, स्यावे जसि बुद्धि हो|
दूब जस फलिये, सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये|
शब्दार्थ: हर्या (हरियाला )कर्क संक्रांति (लोक संस्कृति)
(लेखक उत्तराखंड के लोक संस्कृतिकर्मी हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)
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