By Brijmohan Joshi, Nainital
उत्तराखंड में घ्यू (घी) संक्रांति पर्व भाद्र मास की संक्रांति को मनाया जाता है। प्राकृतिक वातावरण बड़ा ही मनोहारी होता है। खेत हरे हो जाते हैं, नई-नई सब्जियां और फल-फूल पैदा होने लगते हैं। इस दिन दामाद अपने ससुराल वह भांजा अपने मामा के घर सगुन रूप में इस मौसम के फल, सब्जियां, दही, घी हाथ से बनी सामग्रियां ‘पकवान’ आदि भेंट स्वरूप दिया करते हैं। इसे सिंह संक्रांति भी कहा जाता है। घृत को कुमाऊं में घ्यू भी कहा जाता है। इस कारण इसे घ्यू संक्रांति भी कहते हैं।
डॉ रुबाली जी के अनुसार ओलागिया संक्रांति का नाम ओलग एक प्रकार की भेंट है, जो एक पड़ोस के लोग दूसरे पड़ोसियों व अपने सगे संबंधियों या परिचितों को भेंट देते हैं। यह शब्द महाराष्ट्र में ओलखड़े के नाम से परिचित है। वही से कुमाऊं में आया है और गुजराती में यह ओलखवूं है।
बद्रीदत्त पांडे जी इस विषय में लिखते हैं कि पहले चंद राज्य के समय अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की चीजों को दिखाकर शिल्पी लोग साग-भाजी, दही-दूध, घी के पकवान तथा नाना प्रकार की उत्तमोत्तम चीज दरबार में ले जाया करते थे तथा मान्य पुरुषों के लिए भेंट भी ले जाते थे। यह ओलग की प्रथा कहलाती थी। इसलिए यह संक्रांति ओलगिया कहलाती है।
यह संक्रांति का त्योहार कुमाऊं में उत्तरायणी की तरह मनाया जाता है, इसके पहले दिन मासांत को घर-घर में सामर्थ्यानुसार पकवान बनते हैं। घी खाने के लिए यह त्यौहार प्रसिद्ध है। ऐसी धारणा है कि जो इस दिन घी नहीं खाते वह “गनेल” की जाति में जन्म लेते हैं।
घी संक्रांति के दिन इस कुमाऊं के लोग इस मौसम के फल-फूल, हरी-सब्जियां व घूईयां के पेड़ की कलियां गाबा, मूली इत्यादि को भेंट के रूप में पहले लोक देवी-देवता के मंदिर में चढ़ाते हैं, उसके बाद इन सभी वस्तुओं का स्वयं उपयोग करते हैं तथा एक-दूसरे को उपहार के रूप में देते हैं। इस दिन उड़द की दाल की बेड़ियां रोटियां “बेणु रव्ट” घी के साथ खाने का रिवाज है। यह एक स्थानीय त्योहार है।
पांडे का मानना है कि इस त्यौहार को मनाने के पीछे आपसी स्नेह व अपनत्व की भावना का बीजारोपण करना रहा है। कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की भावना इस त्योहार में दृष्टिगोचर होती है।
शायद यह मनुष्य कि उस आदान-प्रदान करने की प्रथा का बदलता स्वरूप है। मसलन अपनी बनाई और उपजाऊ सामग्री को उपहार में दे कर उसके बदले उपहार प्राप्त करना या कुटीर उद्योगों के सामान को विज्ञापित करने की यह प्रथा बहुत अच्छी है।
आज भी गांव में छोटा भाई अपने बड़े भाई के घर जाकर घी, दूध, दही, पिनालू और दाड़िम के फल लेकर जाता है तथा दिन का भोजन वही करता है। इस प्रकार यह पर्व आपसी द्वेष को दूर करता है।
(लेखक लोक संस्कृतिकर्मी और लोक चित्रकार हैं, इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)
Photo: Brijmohan Joshi
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