By Rahul Singh Shekhawat
भले ही खबरिया चैनल चाहे अथवा अनचाहे हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच युद्धोन्माद, हिन्दू-मुस्लिम, गाय-गोबर, प्रोपगेंडा और चिल्ला-चिल्ली की ज्यादा गंध फैला रहे हों। मौजूदा हालात की बात करें तो रिया चक्रवर्ती-कंगना रनौत औऱ सुशांत सिंह राजपूत मौत प्रकरण सुबह से शाम तक उनकी स्क्रीन पर छाया हुआ है।
लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि 90 के दशक से देश में बढ़े निजी चैनलों का हमारे देश में राष्ट्रभाषा हिंदी के जनजागरण में एक रूप में बड़ा योगदान रहा है। वरना कौन नहीं जानता कि ड्राइंग रूम में अंग्रेजी अखबार या रंगबिरंगी पत्रिका ‘स्टेटस सिंबल’ हुआ करते थे। राष्ट्रीय से ज्यादा क्षेत्रीय स्तर पर न्यूज़ चैनल्स के विस्तार से हिंदी भाषा का चलन, लोकप्रियता और स्वीकार्यता सामाजिक रूप से काफी हद तक बढ़ी है।
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मेरी सामान्य सी समझ के हिसाब से शायद राष्ट्रभाषा हिन्दी का इतना जनजागरण आजादी के बाद सरकारी प्रयासों से नहीं हो पाया। दरअसल, सरकारी स्तर पर होने वाले जलसों में हिंदी व्याकरण की बहस और विलाप में ज्यादा उलझी रही। जिससे हिंदी का विस्तार प्रभावित हुआ। भले ही भारत में क्षेत्रीय राजनीति और अन्य आकांक्षाओं के दबाव में दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध हुआ हो।
लेकिन हिंदी फिल्मों के गाने पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा करीब लाए हैं। इस नेक काम में तमाम हिंदी चैनलों के फिल्म आधारित तमाशाई कार्यक्रमों की भी भूमिका रही है। हां ये बात जरूर है कि पेशेवर एवं अकादमिक स्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला बदस्तूर कायम है। अगर सरल अनुवाद की पुस्तकें ज्यादा आने लगेंगी तो पेशेवर स्तर पर हिंदी भाषा का चलन और बढ़ेगा।
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कोई इस मुगालते में ना रहे कि हिंदी को कोई खतरा है। मौटे तौर पर पंजाबी, भोजपुरी, गुजराती, मारवाड़ी-राजस्थानी, अवधी, छत्तीसगड़ी समेत अन्य भाषाएं बोलने वाले भी हिंदी के ही विस्तारक हैं। और हां, धार्मिक पूर्वाग्रहों के चलते उर्दू का विरोध बिल्कुल मत कीजिए क्यूंकि ये हिंदी की ही बहन है। मुझे लगता है कि वैश्विकरण के दौर में आधुनिकता से कदमताल कर रहे भारतीय समाज मे ‘हिंगलिश’ के बढ़े चलन को सकारात्मक रूप में देखना चाहिए।
एक बात थोड़ा लीक से हटकर जरूर कहना चाहूंगा कि भारतीय समाज में सदियों से प्यार की गालियां और छेड़छाड़ प्रचलन में रही। जो संबंधित क्षेत्रों में अलग-अलग भाव और अंदाज में बोली जाती रही है। जिन्हें दादी, नानी, भावी अथवा अन्य लोगों के मुंह से सुनने का मजा ही कुछ और है। आप बेशक खूब अंग्रेजी बोले लेकिन उन गलियों को हिंदी में सुनने में जो अपनत्व अथवा आंनद होता है, वो अंग्रेजी अनुवाद में नहीं मिल पाता।
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मुझे टेलीविजन पत्रकारिता में दो दशक गुजारने के बाद यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि देश में समाचार चैनल ‘कंटेंट’ एवं जनसरोकारों की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाए हैं। TRP की अंधी दौड़ में उनके प्रसारण संवेदनशीलता का अभाव साफ नजर आता है। जिसकी प्रमुख वजह कॉरपोरेट मीडिया मालिकों के निजी हित और विज्ञापनों की आड़ सरकारी गुंडागर्दी समेत अन्य बेतहाशा दबाव हैं।
यही वजह है कि देश में टेलीविजन स्क्रीन से चीनी घुसपैठ, कोरोना संकट, बदहाल अर्थव्यवस्था, बेतहाशा बेरोजगारी औऱ किसानों की समस्या की जगह रिया-सुशांत-कंगना सिरदर्द भरी बहस के मुद्दे हैं। इन दिनों ‘ऑन एयर’ डिबेट कार्यक्रमों में भाषाई स्तर गिरने के साथ गालीगलौज के वाकये भी देखने में आए हैं। लेकिन इसके बावजूद तमाम समाचार चैनल लोगों के घरों में घुसकर हिंदी को बढ़ावा देने में कामयाब रहे ही हैं।
(लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)
(Photo: साभार-अफजाल)
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