Rahul Singh Shekhawat
एक बार फिर उत्तराखंड में अफसरशाही पर बहस छिड़ गई है। सवाल ये है कि वो बेलगाम हो गई या फिर त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार उस पर निर्भर है। या फिर जिल्ले इलाही के इशारे पर ही इरादतन अफसर साहेबान जनप्रतिनिधियों की बेइज्जती कर रहे हैं। सच जो भी हो लेकिन इन तीनों ही सूरत में सूबे की हकूमत के इकबाल पर सवाल खड़े होंगे।
इस कड़ी में ताजा उदाहरण उधमसिंहनगर जिले का है जहां वायरल वीडियो में भाजपा विधायक राजेश शुक्ला कह रहे की अफसर हमारी बिल्कुल नहीं सुनते। सूत्रों के मुताबिक DM नीरज खैरवाल ने विधायक के सवाल की जानकारी देने की बजाय उनकी याददाश्त पर सवाल खड़े कर दिए। जिससे शुक्ला बिफर गए और अधबीच मीटिंग छोड़ कर चले गए। मंत्री मदन कौशिक मूकदर्शक बनकर मुंह ताकते रह गए।
दिलचस्प बात ये है कि पिछले दिनों मुख्यसचिव ने मातहतों को खत लिखकर ताकीद कर चुके हैं कि सांसद-विधायकों के सामने कुर्सी से उठकर प्रोटोकॉल पूरा करें। जिसके बाद खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि अफसर भूल जाते हैं कि वो जनप्रतिनिधि नहीं हैं, उन्हें याद दिलाना पड़ता है।
इस कड़ी में कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडे ने कथित तौर पर निकम्मे अफसरों की केंद्र से शिकायत करने की बात कही थी। पिछले दिनों इलाज के अभाव में हुई एक महिला की मौत से गुस्साए भाजपा विधायक राजेश शुक्ला जिला अस्पताल के सामने ही धरने पर बैठे और लापरवाही पर CM को खत लिख दिया।
इसी तरह मंत्री सतपाल महाराज भी पूर्व में अफसरों के बर्ताव पर अप्रत्यक्ष सवाल खड़े कर चुके हैं। भाजपा के अधिकांश विधायकों की शिकायत रहती है कि अफसर नहीं सुनते। सवाल ये उठता है कि मंत्री पांडे केंद्र में अफसरों की शिकायत करने के शिगूफे क्या मायने हैं।
राज्य के अफसर साहेबान तो मुख्यमंत्री के आधीन काम करते हैं। तो फिर केंद्र में किसकी शिकायत करेंगे त्रिवेंद्र सिंह की! वह तो मोदी-शाह के ही नुमाइंदे हैं। वैसे भी भाजपा सरकार में आधे मंत्री मूल कैडर के हैं और आधे कांग्रेस बगाबत करने वाले। मुमकिन है कि रणनीति के तहत ऐसा किया जा रहा हो। सब जानते हैं कि पर्दे के पीछे उठाने-गिराने का खेल चलता ही रहता है।
ऐसा पहली बार नही हुआ क्योंकि पहले भी मंत्री-विधायक अफसरों की बददिमागी की तान छोड़ चुके हैं। अलबत्ता एक बात कॉमन है कि ना पहले कुछ और ना अब कुछ बदलने की ज्यादा उम्मीदें हैं। वजह ये है कि मुझे लगता है कि ये लाटसाहब मुख्यमंत्री की तो सुनते ही होंगे। अगर विधायक और मंत्रियों की ना भी सुनते हों तो क्या फर्क पड़ता है।
गौरतलब है कि विभागीय सचिवों के तबादले की कतिपय मंत्रियों को भनक तक नहीं लगती। हालांकि खुले तौर पर तो नहीं लेकिन ऑफ द रिकॉर्ड दुखड़ा बताते रहे हैं। वैसे भी जब कभी किसी मंत्री और अधिकारी में ठनी। तो सम्बंधित मंत्री को ही कड़वा घूंट पीना पड़ा। पूर्ववर्ती रेखा आर्य और राधा रतूड़ी का प्रकरण इसका उदाहरण है।
चूंकि बात अफसरशाही की बदमिजाजी की है तो रिटायर्ड IAS उमाकांत पंवार की नाफरमानी का जिक्र जरूरी है। पंवार के खिलाफ तो बकायदा नैनीताल हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि उनका आचरण एक पब्लिक सर्वेंट का नहीं है। इसलिए उन्हें उत्तराखंड प्रशासनिक अकादमी में ट्रेनिंग देकर कोर्ट को सूचित किया जाए।
लेकिन दिलचस्प बात ये है उसी उमाकांत पंवार को त्रिवेंद्र सरकार में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी एंड गुड गवर्नेंस (CPPGG) का मुखिया बनाया गया। ये बात दीगर है कि उन्होंने शासन में पुरानी तवज्जों नहीं मिलने पर ये पद छोड़ दिया। लेकिन कोरोना काल में फिर पंवार को स्वास्थ्य विभाग में वरिष्ठ सलाहकार का ओहदा दिया गया।
जबकि नौकरी पूरी होने से 9 साल पहले पंवार के VRS लेने पर चर्चा गरम थी कि भ्रष्टाचार की जांच से बचने के लिए ऐसा किया। बहरहाल, मैंने ये उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ का गाना गातें रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पूर्ववर्ती सरकार के कार्यकाल में अफसरशाही बेलगाम ना रही हो, लेकिन ऐसी भी स्थिति नहीं थी जैसी आज है।
दिलचस्प बात ये है कि त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल के दौरान IAS अफसरों के बर्ताब पर सवाल विपक्ष नहीं बल्कि खुद भाजपा के विधायक ही आए दिन उठाते रहे हैं। अगर वास्तव में सुनवाई नहीं होती और व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं तो फिर मंत्री और विधायकों को इस्तीफा देने का साहस नहीं दिखाना चाहिए।
लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका दोनों एक गाड़ी के दो पहिए हैं। कोई भी निर्वाचित सरकार लोक कल्याण कार्य के लिए बनती है। अगर दोनों सामंजस्य के साथ चलेंगे तो जनता का भला होगा। मुख्यमंत्री को सत्ताधारी विधायकों के दुखड़ो का संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि 2022 में जनता के बीच जाना है।
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