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बिहार चुनाव: सिर्फ रैलियों की भीड़ से नतीजे तय करने की जल्दबाजी न करें!

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By Rahul Kotiyal

लोगों का कम-धंधा ठप है, नौकरियाँ हैं नहीं और कोरोना ने महीनों तक उन्हें सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रखा है। इस सब के बीच चुनाव किसी मेले की तरह आया है। तो लोग इसमें खूब हिस्सा ले रहे हैं, बतकही की बैठकें लग रही हैं। और चुनाव के सामूहिक जश्न में फ़िक्र को धुंवे में उड़ाया जा रहा है।

बिहार चुनाव में नहीं किसी एक के पक्ष में लहर !

भीड़ से अंदाज़ा अमूमन तब लगता है जब कोई बड़ी लहर काम कर रही हो। जैसे दिल्ली में केजरीवाल की लहर थी, केंद्र में मोदी की लहर थी। या बिहार में ही नीतीश के दूसरे चुनावों में लहर थी। इस बार ऐसी कोई लहर नहीं है. मोदी भले ही आज भी यहां लोगों को बेहद पसंद हैं। लेकिन उनके नाम पर विधानसभा सभा में वोट देने वाले खोजने पर भी नहीं मिल रहे।

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यही हाल नीतीश का भी है। इस बार राज्य स्तर पर उनकी भी कोई लहर नहीं है  ‘बिहार में बहार है, नीतिशे कुमार है’ जैसा नारा तो ख़ुद जदयू वाले भी इस बार नहीं लगा रहे, जनता तो छोड़ ही दीजिए। हाँ, मुख्यमंत्री के सवाल पर आज भी नीतीश कुमार को पहली पसंद बताने वाले अधिसंख्य जरूर हैं  लेकिन नीतीश के नाम के साथ ही लोग चार किंतु-परंतु भी लगाने लगे हैं।

नीतीश की छवि लालू से बेहतर, लेकिन 15 साल के कार्यकाल में असंतोष भी है!

लोग ये जरूर मानते हैं कि लालू यादव की तुलना में नीतीश कहीं ज़्यादा बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। लोग खुलकर स्वीकारते हैं कि बीते 15 साल में बहुत कुछ बदला है, अब घरों से निकलते हुए डर नहीं लगता, गुंडाराज कम हुआ है और विकास कार्य भी हुए हैं। लेकिन इसके साथ ही ये जोड़ना नहीं भूलते कि भ्रष्टाचार भी लगातार विकराल हुआ है। बिना घूस दिए छोटा-बड़ा कोई काम नहीं होता और अफ़सर ही अब दबंगों की जगह ले चुके हैं, वे नए ‘वसूली भाई’ हैं।

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प्रदेश-व्यापी लहर नहीं है तो हर सीट का अपना अलग गणित ज़्यादा काम कर रहा है। तेजस्वी ने एक बज़ जरूर बनाया है, उनकी चर्चा जमकर हो रही है और यही कारण है कि उनकी रैलियों में भीड़ दिनोंदिन बढ़ रही है। लेकिन फिर वही कह रहा हूँ, ये भीड़ पैमाना नहीं है भविष्य आंकने का। इस पर एक-एक सीट का गणित कहीं ज़्यादा भारी है।

बिहार चुनाव में हर सीट का अलग गणित !

सीट का गणित क्या है? सबसे मज़बूत गणित वही जाति है जो कभी जाती नहीं। हालांकि लोग सीधे-सीधे इसका जिक्र नहीं करते, कान घुमाकर पकड़ते हैं. वे चर्चा करते हैं मुद्दों पर। कहते हैं कि वोट मुद्दों पर ही पड़ना चाहिए और उसे ही वोट देंगे जो मुद्दों को सुलझाए, समस्या का समाधान करे। लेकिन जब पूछो कि समाधान कौन करेगा? तब सब अपनी-अपनी जाति वाले का नाम आगे ठेल देते हैं।

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इसी ठेलम-ठेल में बिहार चुनाव फ़ंसा है। एक-एक सीट का अपना विरला समीकरण है और इस समीकरण को प्रभावित करने वाली सारी लहरें ध्वस्त हो चुकी हैं। न तो मोदी/नीतीश की वो लहर अब बची है कि उनके गधे भी जीत जाएं और न लालू/तेजस्वी अब वैसे अछूत रह गए हैं कि उनके घोड़े भी हार जाएं।

भीड़ तो बस घास है जिसे गधे और घोड़े, दोनों ही चबा रहे हैं, चबाते रहेंगे।

 

(पत्रकार राहुल कोटियाल के पेज से साभार इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

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