Jagdish Joshi, Bageshwar
बागेश्वर जिले के गरुड़ बैजनाथ स्थित कोट की माई मंदिर में शायद यह पहली बार होगा जब चैत्र की अष्टमी 1 अप्रैल 2020 शुक्रवार को यहां मेला नहीं लगा हो। क्षेत्र के वरिष्ठ पत्रकार घनश्याम जोशी ने बताया कि चीन के वोहान शहर से शुरू हुए कोरेना से यह ऐतिहासिक मंदिर भी अछूता नहीं रहा है। गरुड़ तहसील के बैजनाथ मंदिर समूह से लगभग 3 किलोमीटर की पैदल दूरी अथवा अब डंगोली के पास से सड़क मार्ग से यहां पहुंचा जा सकता है।
कत्यूरी व चंद राजवंश का संगम: कोटमाई या कोट भ्रामरी नाम से प्रसिद्ध यह देवी मंदिर मल्ला, बिचल्ला व तल्ला कत्यूर( अंग्रेजों के जमाने के राजस्व क्षेत्र पट्टी) के लोंगों की आराध्य स्थली है यही नहीं चमोली व अल्मोड़ा के लगे हुए बड़े भू भाग से भी लोग इस मंदिर पर आस्था रखते हैं।
कत्यूर शासन में हुई स्थापना: कुमाऊं के प्रतापी कत्यूरी राजवंश की राजधानी जोशीमठ थी, लेकिन किसी कारण से यह गरुड़ बैजनाथ ले आई गई। बताया जाता है कि तब गरुड़ घाटी एक झील थी, कथानक है कि बागेश्वर मार्ग में हरद्वारछीना में पहाड़ी को काटकर झील से पानी निकासी की गई। जनश्रुति के अनुसार तब इस क्षेत्र में रणु नामक दैत्य का राज था, उसे वरदान था कि मानव व जानवर उसे नहीं मार सकेंगे।
बताते हैं कि कत्यूरी शासकों ने इस पर देवी की आराधना की और देवी ने भँवरों के रूप में आकर इस दैत्य का संहार किया और भ्रामरी के रूप में स्थापित हुई। जोशीमठ से कत्यूर यहां 850 ईस्वी में आए और आसन्ति देव पहले राजा बताए गए हैं। तब से इस मंदिर में उत्तराभिमुख शिला की भ्रामरी रूप में पूजा होती आ रही है।
भ्रामरी का देवी सप्तशती में है उल्लेख: मार्कंडेय पुराण के देवी सप्तशती में देवी के भ्रामरी रूप का जिक्र आता है। सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में ” यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥५२॥
तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम्।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥५३॥ ”
अर्थात
अरुण नमक असुर जब तीनों लोकों को पीड़ित करेगा, तब मैं असंख्य भ्रमरों का रूप धारण कर उस महादैत्य का वध करुँगी। तब स्वर्ग में देवता और मृत्यु लोक में मनुष्य मेरी स्तुति करते हुए मुझे भ्रामरी नाम से पुकारेंगे। देश में पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी व हरियाणा सहित कुछ अन्य स्थानों में भ्रामरी के मंदिर का उल्लेख मिलता है।
चंद शासकों का जुड़ाव: चंद शासके बाज बहादुर चंद को माँ नन्दा को गढ़वाल से कुमाऊं लाने का श्रेय जाता है। 1644 ई में हुए इस घटनाक्रम के अनुसार नन्दा के विग्रह को गढ़वाल से अल्मोड़ा लाते समय बैजनाथ के झालामाली गांव में रात हो गई, अगली सुबह ले जाने के लिए मूर्ति को उठाने की सभी कोशिश नाकाम हो गई। पंडितों की राय से यहीं पर एक छोटा मंदिर बनाया गया।
बैजनाथ से कोट माई जाने के पैदल रास्ते में आज भी यह मंदिर मौजूद है, लंबे समय तक नन्दा की यहीं पूजा होती रही लेकिन बाद में कब इसको भ्रामरी के साथ स्थापित किया गया इसकी सही जानकारी नहीं है। लेकिन वर्तमान भ्रामरी के साथ ही नंदा की मूर्ति कोट माई में स्थपित है व पूजी जा रही है। मन्दिर में चैत्र अष्टमी व भाद्रपद मास की नवरात्र में कौतिक होता आया है। बहू बेटियों को इसका खासा इंतजार रहता है।
भाद्र अष्टमी को नन्दा जागर में देवनाई भगरतोला के बोरा, मैठाणी परिवार योगदान देते हैं। घेटी अम्स्यारी सहित कई अन्य का भी मंदिर से जुड़ाव है। तैलीघाट के तिवाड़ी यहां नियमित पूजा का दायित्व निभाते आ रहे हैं। अपने गांव बन्तोली से लगभग 10 किमी दूर इस मन्दिर में शीश नवाने कई बार पैदल यात्रा की है। भेटा के लोहनी, एंचर के जोशी व कांटली के कांडपाल अन्य पंडित अपने जजमानों की पूजा अनुष्ठान कराते हैं। पर इस बार कोट कौतिक कोरेना के भेंट चढ़ गया।
(लेखक ने प्रिंट मीडिया में रहते हुए लंबे समय तक विभिन्न प्रतिष्ठित अखबारों में कार्य किया, इस लेख में उनके निजी विचार हैं)