By Pramod Joshi
हरिवंश मूलतः पत्रकार हैं और लम्बे समय तक उन्होंने रांची के अखबार प्रभात खबर का सम्पादन किया। वे जेडीयू प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर राज्यसभा आए थे। यानी राजनेता के रूप में उनका प्रवेश संसद में हुआ था। जब उन्होंने इस रास्ते को पकड़ा था, तब मुझे ठीक नहीं लगा था और मैंने सोशल मीडिया पर यह बात लिखी भी थी। यों संसद के उच्च सदन की परिकल्पना लेखकों, वैज्ञानिकों, पत्रकारों और ललित कलाओं से जुड़े व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व देने की भी है, पर उसके लिए मनोनयन की व्यवस्था है। मनोनयन किस तरह के लोगों का होता है, यह हम आसानी से देख सकते हैं। मनोनीत सांसदों की विचार-विनिमय में भी कोई बड़ी भूमिका नजर नहीं आती।
हरिवंश मनोनयन के रास्ते से सांसद नहीं बने। एक राजनीतिक दल ने एक पत्रकार को राज्यसभा में भेजा। उन्होंने जो भी किया, वह राजनेता के रूप में किया। एक पत्रकार के कदम राजनीति की ओर क्यों बढ़े? जवाब उनके एक पुराने सहयोगी ने दिया,’हरिवंश जी का मानना था कि व्यवस्था को राजनीति ही दुरुस्त कर सकती है।’ राजनीति की अच्छी समझ रखने वाले हरिवंश का पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से करीबी नाता रहा। प्रधानमंत्री बनने पर चंद्रशेखर ने उन्हें अपना मीडिया एडवाइजर बनाया था।
कुछ समय पहले आम आदमी पार्टी से जुड़े आशुतोष ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया। आशुतोष ने यह फैसला क्यों किया, पता नहीं। कयास हैं कि पार्टी की ओर से राज्यसभा न भेजे जाने की वजह से वे नाराज थे। आशुतोष एक अलग किस्म की पत्रकारिता में वापस आए। साख का पता नहीं, राजनीति में आने से उनकी पहचान बनी। वे सांसद बनते तो शायद पहचान और बेहतर बनती। बहरहाल राजनीति में पत्रकार का उतरना विचारणीय विषय है। इसके साथ यह भी देखना चाहिए कि आज पत्रकारों की महत्वाकांक्षाओं की सूची में एक राज्यसभा की सदस्यता भी है।
मई 2016 में चेन्नई से प्रकाशित होने वाली एक मीडिया पत्रिका ने एक आलेख प्रकाशित किया, जिसमें बताया गया कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने 28 कॉलेजों की गवर्निंग बॉडीज में पत्रकारों की नियुक्तियाँ की हैं। पत्रकारों को अपने पक्ष में लाने की कोशिशें जारी हैं। टीवी चैनलों को तटस्थ या ऑब्जेक्टिव राय रखने वाले पत्रकारों की जरूरत नहीं है। कुछ पत्रकार खुलकर कहते हैं कि तटस्थता या निष्पक्षता सम्भव ही नहीं है। पर पत्रकारिता के पाठ्यक्रमों में छात्रों को वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और सत्य-निष्ठा का पाठ पढ़ाया जाता है। क्या यह पाखंड है?
पत्रकारिता खुद में एक प्रकार की राजनीति है। ऐसी राजनीति जिसका केंद्रीय विषय सार्वजनिक हित है, सत्ता पाना नहीं। सत्ता की राजनीति भी ऐसा ही दावा करती है, पर वह जिन आधारों पर चल रही है, वे संकीर्ण होते जा रहे हैं। पत्रकारिता की जिम्मेदारी है कि वह उन संकीर्ण आधारों पर चोट करे। इसके लिए उसे अपनी साख बनानी होगी।
इधर पत्रकारिता से सीधे राजनीति में आने वालों की संख्या बढ़ी है। एक जमाने में श्रीकांत वर्मा, कपिल वर्मा और चंदूलाल चंद्राकर के नाम थे। फिर अरुण शौरी एमजे अकबर, राजीव शुक्ला और चंदन मित्रा जैसे नाम जुड़े। एचके दुआ, कुमार केतकर और हरिवंश राज्यसभा के सदस्य बने। यह सदस्यता दलीय आधार पर है। मनीष सिसौदिया और आशीष खेतान इसी व्यवसाय को छोड़कर आए थे। इस सीधी भागीदारी के अलावा रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा, राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार एक तरफ और सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी और रजत शर्मा जैसे पत्रकार दूसरी तरफ हैं।
राजनीति के संदर्भ में प्रायः एकतरफा राय देखने को मिलती है। शाम को टीवी डिबेटों में शिरकत करने वाले पत्रकारों की लम्बी सूची है, जो राजनीतिक रुझानों के कारण पहचाने जाते हैं। उन्हें बुलावा इसी आधार पर दिया जाता है कि वे फलां का पक्ष रखेंगे। पार्टियों की प्रवक्ताई अब फुलटाइम जॉब है। संतुलित और निष्पक्ष राय बनाने की जिम्मेदारी दर्शक पर है, जो पहले से ही भ्रमित है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)
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