By Rahul Singh Shekhawat
(Uttarakhand @ 22) उत्तर प्रदेश से अलग होकर 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड वजूद में आया। देखते ही देखते उसने 22 साल का सफर पूरा कर लिया है। इस मौके पर युवा पुष्कर सिंह धामी 9 वे मुख्यमंत्री हैं। वह पहले नेता हैं, जिन्हें खुद चुनाव हारने के बाबजूद लगातार दूसरा कार्यकाल मिला। हालांकि उनसे पहले भुवन चंद्र खंडूड़ी एक बार हटने के बाद दोबारा बने।
कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी, हरीश रावत, विजय बहुगुणा सीएम रहे। भाजपा के खंडूड़ी के अलावा रमेश पोखरियाल निशंक, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत ने कमान संभाली। एक के बाद एक ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ साबित हुए। बेशक केंद्रीय मदद से नए राज्य के स्वाभाविक फायदे मिलते नजर आए।
बेशक पर्वतीय अवधारणा के मुताबिक ‘डेवलपमेंट मॉडल’ विकसित नहीं हो पाया। जबकि दो दशकों से नेतृत्व पहाड़ी नेताओं हाथों में है। लाख टके का सवाल है कि इसका जिम्मेदार कौन है?
Uttarakhand @ 22 अस्थिरता से नौकरशाही हुई हावी !
तिवारी को छोड़ दें तो कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। हालांकि राज्य गठन के वक्त गठित हुई बीजेपी की अंतरिम सरकार का नित्यानंद स्वामी ने नेतृत्व किया। लेकिन ‘पहाड़ बनाम मैदान’ की भावनात्मक खाई खोदी गई। जिसमें भगत सिंह कोश्यारी के भाग का छींका टूट गया। दरअसल यही वो टर्निंग पॉइंट था जहां राजनैतिक अस्थिरता की बुनियाद पड़ी।
राजनैतिक अस्थिरता के माहौल में नौकरशाही का हावी होना स्वाभाविक है। विधायकों के दुखड़े तो आम हैं, सचिवालय की मीटिंग में अफसर गैरहाजिर रहे। जिससे गुस्साए कद्दावर मंत्री बैठक छोड़ते देखे गए। नैनीताल हाईकोर्ट ने हुक्म की नाफरमानी पर वरिष्ठ आईएएस डॉ रणवीर सिंह को सस्पेंड किया।
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एक दूसरे आईएएस उमाकांत पंवार को राज्य की प्रशासनिक अकादमी में ट्रेनिंग लेने के आदेश दिए थे। हर सरकार में एक दो अफसरों का बोलबाला रहा। खंडूड़ी की कुर्सी छीनने की वजह ही कथित तौर पर उनके करीबी आईएएस प्रभात सारंगी बने।
एक दूसरा पहलू ये भी है कि मुख्यमंत्रियों ने करीबी आईएएस अफसरों को हेवी वेट किया। जबकि बिना लॉबिंग वाले अच्छे अफसर हल्के रहते हैं। जो उत्तराखंड में खाली बैठने को बजाय डेपूटेशन पर बाहर चले गए। कई कर्मठ अफसरों ने वीआरएस लेना बेहतर समझा। (Uttarakhand @ 22)
केंद्रीय के भरोसे विकास, राज्य में पनपा भ्रष्टाचार!
केंद्रीय मदद के तहत ऋषिकेश – कार्णप्रयाग रेल और चारधाम हाईवे परियोजना प्रगति पर है। उत्तराखंड गठन के वक्त कमोबेश 1,500 करोड़ का वार्षिक बजट था। जो बढ़ते हुए 65,571.49 करोड़ हो गया।प्रति व्यक्ति आय 1,82,696 रुपए है जो राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। नेतृत्वकर्ता उत्तर प्रदेश से अलग होने के 22 साल बाद भी परिसंपत्तियों का बटवारा नहीं करा पाए। हालांकि योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद आगे बढ़े हैं। सियासी महत्वाकांक्षाएं हमेशा आमजन की उम्मीदों पर भारी पड़ीं।
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जिसकी तस्दीक मुख्यमंत्रियों के 11 बार हो चुके शपथ ग्रहण करते हैं। उत्तराखंड विकास से ज्यादा भ्रष्टाचार के चलते सुर्खियों में रहा है। तिवारी के कार्यकाल में पटवारी भर्ती और दरोगा भर्ती घोटाले सामने आए। निशंक के दौर में सिटर्जिया भूमि घोटाला और जल विद्युत परियोजना आबंटन सरीखे घोटाले नैनीताल हाईकोर्ट की दहलीज में पहुंचे। विजय बहुगुणा के कार्यकाल में कथित ‘डीलिंग’ के लिए चर्चा में रहीं। (Uttarakhand @ 22)
हरीश रावत सरकार बचाने के लिए स्वयं एक कथित स्टिंग में फंसे। त्रिवेंद्र ने खुद NH-74 भूमि अधिग्रहण को सूबे का सबसे बड़ा घोटाला बताते हुए CBI जांच की मांग उठाई। ये बात दीगर है कि केंद्र की मोदी सरकार ने अनसुना कर दिया। हालिया राज्य अधीनस्थ सेवा चयन आयोग भर्ती घोटाला इसकी नजीर है।
स्थाई राजधानी तय नहीं, समर कैपिटल बन गई !
यह अजीबोगरीब स्थिति कि ‘ग्रीष्मकालीन राजधानी’ घोषित हो गई लेकिन स्थायी राजधानी तय नहीं है। राज्य गठन के समय देहरादून अस्थायी राजधानी बना। जिसके बाद विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में ट्रांसिट असेंबली बनाने का फैसला किया। हरीश रावत ने सीएम बनने पर वहां ‘टेंट – तंबूओं’ में ऐतिहासिक विधानसभा सत्र आयोजित करके अमिट लकीर खींची।
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फिर विधानभवन की स्थापना करते हुए गैरसैंण के विकास को रफ्तार दी। लेकिन जोड़ तोड़ की सरकार के दबाव से जूझे हरीश उसका स्टेट्स तय नहीं कर पाए। लेकिन प्रचंड बहुमत के सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण को समर कैपिटल घोषित कर दिया। वैसे कहते हैं कि राजधानी चयन के लिए बने ‘त्रिपाठी आयोग’ की रायशुमारी कथित रुप से गैरसैंण के पक्ष में नहीं रही।
पहाड़ बनाम मैदान की खाई, नेताओं का चुनावी पलायन !
दरअसल यूपी से अलग पर्वतीय राज्य निर्माण के लिए आंदोलन हुआ। लेकिन उत्तराखंड के नक्शे में उधमसिंहनगर, हरिद्वार और देहरादून, नैनीताल के ‘मैदानी भूभाग’ भी शामिल हुआ। जहां 70 सदस्यीय विधानसभा की कमोबेश आधी सीटें मौजूद हैं। अगले परिसीमन के बाद जनसंख्या घनत्व के हिसाब से मैदान में सीटें बढ़ेंगी। इसलिए भाजपा कांग्रेस की सरकारें न तो गैरसैंण को ही अपना सकी और न ही देहरादून को नजरअंदाज कर पाईं।
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राज्य गठन के 22 साल बाद भी अनसुलझे राजधानी मुद्दे की ये असल जड़ है। जहां यूपी के दौर में लोग पहाड़ों से उतर महानगर अथवा देश के बड़े शहरों में बसा करते थे। वहीं उत्तराखंड बनने पर तराई, भावर और मैदान का रुख किया। दूसरा संकट पहाड़ी नेताओं का चुनाव लडने के लिए सियासी पलायन करना है। जो अपनी सहूलियत के लिए मैदानी सीटों पर नजर गढ़ा रहे हैं। वहीं उत्तराखंड क्रांति दल खत्म होने से क्षेत्रीय ताकत असरहीन हैं।
नाम बड़े और दर्शन छोटे, युवा पुष्कर के पास बड़ा मौका !
पहाड़ बनाम मैदान की जंग में स्वामी 9 महीने टांग खिंचाई में निकाल पाए। कोश्यारी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष नेतृत्व बदलने के अगुवा रहे। तिवारी आधारभूत विकास की बुनियाद रखने में तो कामयाब रहे लेकिन आंदोलन की अवधारणा की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाए। सख्त प्रशासक होने के बाबजूद ईमानदार छवि के खंडूड़ी डिलीवर नहीं कर पाए। हरीश रावत कतिपय कमियों के चलते अपना बड़ा विजन जमीन पर समुचित नहीं उतार सके।
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कड़क मिजाज त्रिवेंद्र अराजकता पर लगाम कसने में सफल रहे लेकिन संवाद हीनता ने कुर्सी से उतार दिया। उधर मोदी मैजिक में पहली बार सरकार रिपीट हुई। पुष्कर चुनावपूर्व अपने संक्षिप्त कार्यकाल के मुकाबले दूसरी पारी में थोड़ा संभलते हुए दिखे हैं। बहरहाल, चुनाव हारने के बाद दोबारा सीएम बने व्यवहारकुशल धामी के सामने एक नया अध्याय लिखने का सुनहरा मौका है।
(लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार हैं )