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Holi: ब्रज-बरसाने की तरह समृद्ध है कुमाऊंनी होली का इतिहास, बैठकी होली, महिला होली, स्वांग और खड़ी होली की परंपरा

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Pramod Sah

समूचे भारत में तो फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन ही रंगों के साथ होली परवान चढ़ती है। इस कड़ी में मथुरा के ब्रज-बरसाने और बनारस की होली देश और दुनिया में मशहूर है। लेकिन उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल मेंं लोक के रंगों में बसी होली की समृद्धशाली परंपरा है। इस पर्वतीय क्षेत्र में होली महज 3 दिनों का नहीं बल्कि 3 महीने का त्योहार है। जिसकी पौष मास के पहले रविवार को विधि विधान से बैठकी होली में गायन से शुरुआत हो जाती है। उसके बाद पड़ने वाले हर रविवार को शहरी सर्द रातें गुनगुनी होने लगती हैं। बसंत पंचमी के दिन से तो महिलाओं की होलियां भी प्रारंभ हो जाती है।

कुमाऊं में होली की विधाएं:

कुमाऊं में होली को चार विधाओं में परिभाषित किया जा सकता है। पहली खड़ी होली, दूसरी बैठकी होली, तीसरी महिलाओं के ठेठर और स्वांग और चौथी खड़ी होली। तो आईये होली के क्रमवार विभिन्न स्वरूपों पर गौर करते हैं।

1-बैठकी  होली: कुमाऊं में हारमोनियम और तबला के साथ शास्त्रीय संगीत की विधा में बैठकर होली गायन की परंपरा अद्भुत है।  बैठकी होली की शुरुआत पौष मास के पहले रविवार से हो जाती है। स्थानीय परंपराओं में यहां हर शहर और गांव में दो-चार अद्भुत होल्यार हुए हैं। जो ना केवल होली के गीत बनाते हैं बल्कि उसकी डायरी तैयार रखते हैं। इस शानदार परंपरा को रियाज के जरिए अगली पीढ़ी तक  भी पहुंचाते हैं.

Photo Credit: भुवनेश जोशी

2-महिला होली : महिलाओं की होली बसंत पंचमी के दिन से प्रारंभ होकर रंग के दूसरे दिन टीके तक प्रचलित रहती है। आमतौर पर यह होली बैठकर ही होती है जिसमें ढ़ोलक और मजीरा सरीखे वाद्य यंत्रों के साथ गायन होता है।  महिलाओं की होली शास्त्रीय, स्थानीय और फिल्मी गानों को समेट कर उनके फ्यूजन से लगातार नया स्वरूप प्राप्त करती रहती है। करीब 3 दशक पहले पर्वतीय समाज में होली के प्रति पुरुषों का आकर्षण कम होने लगा। साथ ही मैदानी क्षेत्र की कतिपय बुराइयां भी पर्वतीय होली में शामिल हो रही थी। तब महिलाओं ने इस सांस्कृतिक त्यौहार को न केवल बचाया बल्कि आगे भी बढ़ाया।

3-स्वांग और ठेठर: स्वांग और ठेठर होली में मनोरंजन की सहायक विधाएं हैं। जिसके बिना कुमाऊंनी होली में अधूरापन नजर आता है। जिसमें महिलाएं समाज के अलग-अलग किरदारों और उनके संदेश को अपनी जोकरनुमा पोशाक और प्रभावशाली व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। संगीत के मध्य विराम के समय यह स्वांग और ठेठर होली को अलग ऊंचाई प्रदान करता है। यह महिलाओं की बैठकी होली में ज्यादा प्रचलित हैंं। कालांतर में होली के ठेठर और स्वांग की विधा ने कुछ बड़े कलाकारों को भी जन्म दिया।

Photo Credit: अरुण कुमार साह

4-खड़ी होली: आमतौर पर खड़ी होली का अभ्यास पटांगण (गांव के मुखिया के आंगन ) में होता है। यह होली अर्ध -शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है। जहां मुख्य होल्यार होली के  मुखड़े को गाते हैं और बाकी  होल्यार उसके चारों ओर एक बड़े घेरे में उस मुखड़े को दोहराते हैं। ढ़ोल नरसिंग उसमें संगीत देते हैं। घेरे में कदमों को मिलाकर नृत्य भी चलता रहता है। कुल मिलाकर यह एक अलग और स्थानीय शैली है। जिसकी लय अलग-अलग घाटियों में अपनी अलग विशेषता और विभिन्नता लिए हैं। खड़ी होली ही सही मायनों में गांव की संस्कृति की प्रतीक है। यह  आंवला एकादशी के दिन प्रधान के आंगन में अथवा मंदिर में चीर बंधन के साथ प्रारंभ होती है। द्वादशी और त्रयोदशी को यह होली अपने गांव के निशाण अर्थात विजय ध्वज ढोल नगाड़े और नरसिंग जैसे वाद्य यंत्रों के साथ गांव के हर मवास के आंगन में होली का गीत गाने पहुंचकर शुभ आशीष देती हैं। उस घर का स्वामी अपनी श्रद्धा और हैसियत के अनुसार होली में सभी गांव वालों का गुड़ , आलू तथा अन्य मिष्ठान के साथ स्वागत करता है। चतुर्दशी के दिन क्षेत्र के मंदिरो में पहुंचकर यह खेली जाती है।

Photo Credit: किशोर जोशी

छलड़ी:    चतुर्दशी और पूर्णिमा के संधिकाल है जबकि मैदानी क्षेत्र में होलिका का दहन किया जाता है। कुमाऊं अंचल मेंं गांव के सार्वजनिक स्थान में चीर दहन होता है। जिसके अगले दिन छलड़ी यानी गीले रंगो और पानी की होली के साथ होली संपन्न होती है। मैदानी इलाकों में होली खेलने के प्रमुख रंग वाले दिन को दुल्हेंदी कहते हैं। जिसे कुमाऊं के पर्वतीय अंचल में छलड़ी कहा जाता है।

Photo Credit: संजय नागपाल

वैसे तो कुमाऊं के गांव-गांव में ही होली का त्यौहार बढ़-चढ़कर परम्परागत रूप से मनाया जाता है। लेकिन मुख्य रूप से अल्मोड़ा, द्वाराहाट, बागेश्वर, पाटी , चंपावत,  गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ और नैनीताल कुमाऊं की संस्कृति के केंद्र रहे हैं।  जहां के सामाजिक ताने-बाने में वह तत्व मौजूद हैं, जो संस्कृति और उसके महत्व को समझता और जानता है  कि संस्कृति ही समाज को स्थाई रूप से समृद्ध करती है।

कुमाऊं में होली की विशिष्ट को जिंदा रखने में अल्मोड़ा के बेहद चर्चित हुक्का क्लब, हिमालय संगीत शोध संस्थान, नैनीताल समाचार होली और  युगमंच होली महोत्सव नैनीताल का अहम योगदान है। समाज को स्थाई और नई दिशा देने का काम हमेशा ही संस्कृति ने  किया है। इस दिशा में  पिछले कुछ सालों से कुमाऊं अंचल में होली का अभूतपूर्व योगदान है। जिसकी दस्तक अब देहरादून में भी सुनाई देने लगी है ।

(लेखक उत्तराखंड पुलिस सेवा UPS के अधिकारी हैं)

 

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