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कहीं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को कोरोना से पहले ‘भूख’ से ना जूझना पड़ जाए! महामारी के दौर में संगठित औऱ असंगठित का भेद सही नहीं है

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Rahul Singh Shekhawat
प्रधानमंत्री ने कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए पूरे देश में लॉक डाउन लागू कर दिया है। सड़क, रेल और हवाई समेत अन्य सभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट 21 दिनों के लिए बंद है। अलबत्ता, जीवन से जुड़ी दवाई और रोजमर्रा की जरूरत की सेवाओं पर पाबंदी नहीं है। देश व्यापी तालाबंदी के चलते 130 करोड़ लोगों को जिंदगी बचाने के लिए एहतियात के तौर पर उनके घरों में कैद में रखा गया है।
लेकिन शहरों में रोजी-रोटी के लिए काम करने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार समेत अन्य राज्यों के करोड़ों असंगठित मजदूर तबके के सामने गंभीर संकट की स्थिति है। वजह ये है कि बिना मजदूरी के वो कितने दिन दिल्ली, मुंबई या अन्य किसी नगर अथवा महानगर में कितने दिन रह पाएंगे। यही वजह है कि मजबूरी में उन्होंने अपने अपने गांव की तरफ रुख कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की तर्ज पर देश में कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने के लिए अचानक तालाबंदी का एलान किया। जिसके बाद कुछ रिक्शा में अपने बाल बच्चों को बैठाकर अपने गंतव्य निकल गए। कई पुरूष और महिलाएं अपने बच्चे को गोद और सिर या कंधे पर समान की पोटली रखकर पैदल गांव चल दिए। बदहवासी में पसीना पोंछते हुए कदम बढ़ाए जा रहे हैं। वो कहां तक पहुंच पाएंगे खुद उन्हें पता नहीं।
दिल्ली समेत देश के अन्य महानगरों में ज्यादातर प्रवासी मजदूर हिंदी भाषी उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं। जिनके दिल्ली से उत्तर प्रदेश और बिहार, गुजरात से राजस्थान पैदल निकलने की तस्वीरें सामने आ रही हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड में चारधाम हाइवे प्रोजेक्ट अथवा अन्यत्र काम करने वाले मजदूर भी पैदल अपने घरों को जाते देखे जा रहे हैं। वो रिपोर्टरों से कह रहे हैं कि साहेब बिना काम के कितने दिन यहां रह पाएंगे, भूखे मर जाएंगे। कम से कम महामारी के समय गांव में अपने घरवालों के बीच तो रहेंगे।
आनन फानन या फिर कहें कि बदहवासी में सैंकड़ों अथवा हजारों किलोमीटर पैदल निकल पड़ना उनकी मनोदशा बताने को काफी है। जिस तरह से कोरोना मामलों की संख्या बढ़ रही है, उसे देखकर नहीं लगता कि हालात जल्दी सामान्य हो जाएंगे। इस आशंका को सिरे से नकारा नहीं जा सकता कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को कहीं जानलेवा कोरोना से पहले भूख से ना लड़ना पड़े।
संगठित क्षेत्र के रजिस्टर्ड मजदूरों की खातों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड एवं बिहार की सरकारों ने एक-एक हजार रुपये और दिल्ली सरकार ने 5 हजार रुपये डालने का सराहनीय कदम उठाया। लेकिन असल समस्या तो कंस्ट्रक्शन वर्क समेत अन्य काम करने वाले असंगठित लोगों की है। जिनका सरकारी कागजों में रिकॉर्ड ही नहीं होता।
जहां लोकतांत्रिक हिंदुस्तान में कोरोना के तौर पर मानव सभ्यता पर सबसे बड़ा खतरा है तो वहीं करोड़ों मजदूरों के फांके से जूझने का अंदेशा है। इस बेहद  मुश्किल दौर में मजदूरों के पेट की भूख को संगठित अथवा असंगठित के आधार पर अलग-अलग बांटना अमानवीयता होगी। इसलिए तकनीकी अथवा संस्थागत कहें गया फिर व्यवस्थागत मानदंडों से हटकर मानवीय दृष्टिकोण से सोचना पड़ेगा।
ये ठीक है वैश्विक जानलेवा वायरस ने हिंदुस्तान में दस्तक देकर देश के सामने गंभीर चुनौती दी है। खतरे का अंदाज इस बात से ही लगाया जा सकता है कि भारत सरकार ने एक झटके में पूरे देश को लॉकडाउन कर दिया। इन हालात में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के पेट का ख्याल रखना देश की जिम्मेदारी है। लिहाजा ये सुनिश्चित होना चाहिए कि एक भी गरीब मजदूर भूख से ना मरे।
सनद रहे कि अगर एक भी गरीब मजदूर की फांके से मौत हुई तो वो हिंदुस्तान के पुरुषार्थ पर सवालिया निशान लगा देगी। अच्छी बात है कि केंद्र ने आर्थिक पैकेज घोषित किया है। जरूरत इस बात की है कि औद्योगिक घराने देशव्यापी तालाबंदी के इस मुश्किल दौर में उदारता के साथ मजदूरों के पेट का खयाल करने के लिए आगे आएं।
 (लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)

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