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Encounter: न्याय में देरी से लोगों में हताशा बढ़ी, इसलिए मुठभेड़ के पक्ष में जनभावना! लोकतंत्र में ‘त्वरित न्याय’ की प्रवृत्ति उचित नहीं है

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Pramod Sah
अभी कोई 7 माह पूर्व हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों के एनकाउंटर पर शुरू राष्ट्रीय बहस परवान नहीं चढ़ पाई कि कानपुर के कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर ने ‘विधि स्थापित प्रक्रिया के तहत न्याय’ बनाम लोकप्रिय ‘त्वरितन्याय’ की बहस को तेज कर दिया है। वैसे तो एक लोकतांत्रिक समाज में इस प्रकार की बहस के लिए हमेशा सम्मानजनक स्थान होना भी चाहिए ।

घंटी बजाने और सर कलम कर देने जैसे लोकप्रिय मुहावरों से निकली हमारी न्याय यात्रा को आधुनिक स्वरूप यूनान के न्याय सिद्धांतों से ही प्राप्त हुआ, जिसके जनक प्लूटो ने न्याय को सद्गुण कहा है। जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। जो समाज के अन्य सद्गुणों में संतुलन उत्पन्न करें। यानी संतुलन न्याय की पहली जरूरत है ।

जिसमें आगे चलकर स्वयं के पक्ष रखने का अधिकार अथवा खुद को निर्दोष साबित करने का अधिकार भी प्राकृतिक न्याय का बुनियादी सिद्धांत बना। जिसने ‘रुल आफ लॉ’ से चलने वाली शासन की अवधारणा को स्थापित करके पूरी दुनिया में लोकतंत्र और उसकी भावना को मजबूत किया।

लेेेकिन न्यायिक प्रक्रिया में देरी और थका देने वाली तकनीकी प्रक्रिया का लाभ अक्सर अपराधी ही लेने में सफल रहे हैं । जिसके चलते आम जनता और फरियादियों में निराशा है। भारत में लंबित न्याय के आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं।  जून 2019 में हमारी देश की अदालतों में 43 लाख 55 हजार मामले लंबित थे। जिनमें 8 लाख मामले 10 वर्षों से अधिक और 2 लाख मामले  25 सालों से लंबित हैं।

न्यायालय में लंबित इन मामलों से स्थापित न्याय व्यवस्था के प्रति आम जनता का विश्वास कम हुआ है। लेकिन इसका यह कदापि मतलब नहीं कि न्याय पूरी तरह जनभावना के अनुरूप सड़क पर ही संपादित हो। यदि ऐसा हुआ तो भविष्य में अपने हितों के लिए इसे किसी भी रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जिससे सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की यात्रा वहीं समाप्त हो सकती है।

ऐसा नहीं है कि देर से मिलने वाले न्याय के दुष्प्रभाव से हमारी न्यायपालिका और सरकार चिंतित ना हो। इसलिए  2000 से देश में त्वरित न्यायालय ‘फास्टट्रैक कोर्ट’ तेजी से स्थापित किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त सरकार और उच्च न्यायालय भी विशेष मामलों में समयबद्ध न्याय की अपेक्षा कर सकती है । लेकिन न्याय के लिए न्याय के अतिरिक्त साधनों को नहीं अपनाया जा सकता है।

जहां तक एनकाउंटर की बात है कानून की प्रक्रिया में ऐसा कोई शब्द है ही नहीं। ना ही पुलिस को ऐसा कोई अधिकार है। सिर्फ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46 पुलिस को अपराधी की गिरफ्तारी सुनिश्चित करने हेतु युक्तियुक्त बल प्रयोग करने का अधिकार देती है। साथ ही इसके भी स्पष्ट दिशा निर्देश हैं कि वह ऐसा किन अपराधों में किस सीमा तक बल प्रयोग कर सकती है

वैसे 80 और 90 के दशक में पंजाब के आतंकवाद और अंडरवर्ल्ड के गैंगवार से निपटने के लिए जिस प्रकार पुलिस मुठभेड़ प्रचलित हुई। जिस पर हस्तक्षेप करने के लिए 1993 – 94 सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वेंकट चेलैया ने संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत विशेष शक्तियों का प्रयोग किया। इस दिशा में अखिल भारतीय स्तर पर निर्देश जारी किए गए, जो भारत में मानव अधिकारों का आधार बने।

 

जिस की मूल भावना 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व मानवाधिकार के जिनेवा कनवेन्शन से ली गई । सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता के बाद कोई एक डेढ़ दशक तक पुलिस मुठभेड़ में कमी रही। सितंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर.एम लोढ़ा तथा जस्टिस नारिमन इस प्रकार के एनकाउंटर को एक्स्ट्राज्यूडिशल किलिंग उच्चारित करते हुए विस्तृत दिशानिर्देश दिए गए।

जिसमें सी.आर.पी.सी की धारा 157 में अभियोग पंजीकृत करना, प्रकरण की मजिस्ट्रियल जांच आदि जैसे अनिवार्य स्पष्ट निर्देश दिए हैं। तमाम कानूनी कोशिशों के बाद भी न्याय में विलंब से आम भारतीय जनमानस हताश है क्योंकि त्वरित न्याय की कामना करता है। जिस कारण एनकाउंटर को जन समर्थन भी मिलता है। इसलिए जरूरी है कि व्यवस्था और लोकतंत्र के हिमायती विचार को ऐसे त्वरित उपाय करने चाहिए जिससे पुलिस मुठभेड़ के प्रति लोक रुझान में कमी आए ।

यदि जनभावनाओं को ही न्याय का आधार माना जाए तो महात्मा गांधी की हत्या से अधिक जन भावना से जुड़ा मुद्दा पूरी दुनिया में आज तक कोई नहीं रहा। जिसमें नाथूराम गोडसे सहित 8 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया। कानूनी मुकदमें के बाद 11 फरवरी 1949 को न्यायपालिका का ऐतिहासिक निर्णय आया। जिसमें नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सजा हुई।

जबकि 3 व्यक्तियों को आजीवन कारावास और विनायक दामोदर सावरकर निर्दोष पाए गए। दिगम्बर बडगे सरकारी गवाह बने और शंकर किस्तैय्या उच्च न्यायालय में अपील से बरी हुए। इस निर्णय ने भारत की साख को मजबूत किया और हम एक परिपक्व लोकतंत्र का विश्व को संदेश देने में कामयाब रहे ।

जबकि अमेरिका में 1963 में राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या के आरोपी ली हार्वे ओसवाल्ड को भावनाओ के ज्वार में दो दिन बाद ही जैट रूबी ने गोली मार दी। यह अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख के लिए बड़ा झटका था।

हालांकि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी को जन भावना और त्वरित न्याय के दबाव में एनकाउंटर किए जाने के पक्ष में व्यापक जन भावना है। लेकिन विधि से स्थापित मतलब ‘रूल ऑफ लॉ’ वाली व्यवस्था के इतर न्याय की परंपरा लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। हमेें इस जन भावना का उपयोग त्वरित न्याय व्यवस्था को विकसित करने में ही करना चाहिए ।

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