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उत्तराखंडधर्म-संस्कृति

Jai Nanda! कुमाऊं-गढ़वाल की अराध्य देवी है मां नंदा, दोनों हिस्सों में हैं पूजनीय !

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By Jagdish Joshi

उत्तराखंड के कण कण में भगवान का वास है। यहीं कारण है कि इसे देवभूमि भी कहा जाता रहा है। सनातन धर्म के तहत मान्य 33 कोटि देवी देवता यहां निवास करते हैं। इनमें मां नंदा का अपना अद्वितीय स्थान है। उत्तराखंड के केदार व मानस खंड यानि गढ़वाल व कुमाऊं में मां नंदा को आमजन अपनी कुल व ईष्ट देवी के रूप में पूजते आए हैं। उत्तराखंड के दोनों मंडलों मेें रहे राजतंत्र में भी मां नंदा विशेष तौर पर पूजनीय रही है।

मां नंदा में कुमाऊं-गढ़वाल की समान आस्था: 

वाल मंडल में हर 12 साल में होने वाले नंदा राजजात के अलावा हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मां नंदा का विशेष पूजन होता है। कुमाऊं की राजधानी रहे अल्मोड़ा से नंदा देवी मेले की शुरूआत हुई थी। जबकि आज नैनीताल समेत कई नगरों में इसका भव्य आयोजन होने लगा है। हालांकि 2020 में कोरोना के चलते इसको प्रतीकात्मक तौर पर मनाया गया है।

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शास्त्र में आख्यानः नंदा को शैलपुत्री यानि हिमालय की पुत्री भी बताया गया है। वहीं यशोदा के आठवे पुत्र कृष्ण के बदले नंद के घर पैदा हुई मातृशक्ति (नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभवा) को भी नंदा कहा गया है। हिमालय के सबसे ऊंचा शिखर को भी नंदाकोट कहा गया है। यही नहीं मां को नौ दुर्गाओं में एक माना गया है।

चंद राजाओं के जुड़ा कथानकः

कुमाऊं में कत्यूर वंश का सदियों का शासन रहा है। कई इतिहासकार मानते हैं कि नंदा उनकी भी कुलदेवी रही थी। कत्यूरों के शासन के बाद कुमाऊं में चंदवंशीय राजाओं का शासन किया। चंद लंबे समय तक चंपावत से राज करने के बाद राजधानी को अल्मोड़ा लाए। कहा जाता है कि इसी बंश के प्रतापी राजा बाज बहादुर चंद 1670 में गढ़वाल के वर्तमान चमोली जिले के कुमाऊं सीमा से लगे बधाणगढ़ी के किले से नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा को अल्मोड़ा लाए।

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इस यात्रा के दौरान मां का पड़ाव बैजनाथ गरुड़ के पास झालमाली गांव कोट भ्रामरी मंदिर के निकट भी रहा। राजा ने वहां भी नंदा मंदिर की स्थापना की जोकि अब कोटामाई मां भ्रामरी मंदिर में स्थापित है। इधर राजा ने अल्मोड़ा में वर्तमान कलेक्ट्रेट स्थित अपने मल्ला महल में मां का मंदिर बनवाया।

प्रतिमा को उन्होंने मल्ला महल (वर्तमान कलक्ट्रेट)परिसर में प्रतिष्ठित किया। इसके बाद कुमाऊं में भी नंदा की औपचारिक तौर पर पूजा की शुरूआत हुई। चंद राजा भी नंदा को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा करने लगे। अल्मोड़ा में नंदा देवी महोत्सव की भी इसके साथ ही शुरूआत हुई।

कमिश्नर ट्रेल ने बनवाया वर्तमान मंदिरः

अल्मोड़ा का नंदा देवी मंदिर भी अंग्रेज शासन से प्रभावित हुआ था। जानकारी के अनुसार अल्मोड़ा का डिप्टी कमिश्नर जीजे ट्रेल ने मल्ला महल यानि कलेक्ट्रेट परिसर स्थित नंदा देवी मंदिर से मूर्ति हटवा दी। उस कक्ष का उपयोग हथकड़ी रखने के लिए करवा दिया ।

कुमाऊंनी कवि गौर्दा की इसको लेकर कविता भी है, मल्ले महल उठाई नंदा बेड़ी खाना तहां धरा। बताते हैं कि इसके बाद मि. ट्रेल हिमालय यात्रा में गया। जहांं उसकी आंखे खराब हो गई। लौटने के बाद लोगों ने उसे बताया कि नंदा देवी की मूर्ति हटाने के कारण यह प्रकोप हुआ है। ट्रेल ने इसकी परीक्षा ली और चंद राजा उद्योत चंद के बनाया उद्योत चंद्रेश्वर और पार्वती चंद्रेश्वर मंदिर परिसर में वर्तमान नंदा देवी मंदिर पहाड़ी शैली मेें बनाया।

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बताते हैं कि इसके बाद ट्रेल की आंखों में रोशनी लौट आई।

राजा का बहिनः

चंद राजाओं की कुलदेवी बताई गई नंदा को आम जन मानस में राजा की बहिन भी बताया गया है। प्रचलित कथानक के अनुसार राजा की बेटी की शादी हिमालय से हुई थी। ससुराल जाते समय उसे कई लोगों ने परेशान किया या परेशानी में मदद नहीं की। इसके चलते मां नंदा की प्रतिमा केले से बनाई जाती है वहीं हाईकोर्ट के आदेश से पहले तक बकरी व भैंसे की बलि देने को इसी का प्राविधान बताया जाता था।

ऐसे बना नैनीताल में नयना मंदिर: 

मोतीराम शाह ने की नैनीताल में शुरूआतः पीटर बैरन के 1841 में नैनीताल में बसासत शुरू होने के बाद अंग्रेजों ने यहां बंगले बनाए। इन बंगलों को निर्माण का जिम्मा अल्मोड़ा निवासी नेपाल मूल के बड़े ठेकेदार मोतीराम शाह को दिया गया। बताते हैं कि शाह ने भी 118 साल पहले नैनीताल में नंदादेवी पूजा की शुरूआत की थी। बाद में श्री राम सेवक सभा को यह जिम्मा दिया गया। यह सिलसिला आज भी जारी है। कोरोना के चलते इस बार नैनीताल सहित सभी स्थानों में मां की प्रतीकात्मक पूजा हुई।

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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

(PC: Ritesh Sagar)

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