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Pranab मुखर्जी- ‘भारतरत्न’ नहीं रहे! PM के अलावा हर अहम सियासी ओहदे पर रहे

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By Rahul Singh Shekhawat

‘भारत रत्न’ प्रणव मुखर्जी का नई दिल्ली स्थित आर्मी अस्पताल में निधन हो गया। 84 वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति के   गुजरने के साथ ही भारत में विलक्षण राजनीति के एक अध्याय समाप्त हो गया। प्रधानमंत्री पद छोड़ दें तो शायद ही ऐसा कोई अहम विभाग नहीं है जिसमें मंत्री रहते हुए उन्होंने अपनी अमिट छाप ना छोड़ी हो।

उन्हें डॉ मनमोहन के नेतृत्व वाली UPA-2 कार्यकाल के दौरान 2012 के दौरान राष्ट्रपति बनाया गया। जिसके बाद नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में साल 2019 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया था। ये इंदिरा गांधी थी जिन्होंने उनकी सियासी काबिलियत को पहचाना। देखते ही देखते मुखर्जी वह इंदिरा के इस कदर करीबी हो गए कि उनकी गैरहाजिरी में कैबिनेट बैठक हेड किया करते थे।

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दिलचस्प बात ये है कि कभी वित्तमंत्री रहते प्रणवदा ने डॉ मनमोहन सिंह को रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के गवर्नर बनने के ऑर्डर पर दस्तखत किए थे। और जब मनमोहन प्रधानमंत्री बने तो वह खुद उनकी सरकार में फाइनेंस मिनिस्टर रहे थे। प्रणव मुखर्जी का प्रधानमंत्री पद के लिए दो बार नाम चला। पहला 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद और दूसरा 2004 में UPA गठन पर।

बतौर राष्ट्रपति ऐसा कोई ऐसा मौका नहीं आया जब वह  ‘रबर स्टैंप’ साबित हुए हों। वह राष्ट्रपति पद से हटने के बाद कांग्रेस के एक तबके की आलोचना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के नागपुर मुख्यालय पहुंचे। जहां उन्होंने भारतीय दर्शन का अपने अंदाज में संघी स्वयं सेवकों को ‘भारत दर्शन’ और देश की विविधता का पाठ पढ़ाया।

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पश्चिम बंगाल के रहने वाले प्रणब दा1973 में राज्यसभा सांसद बनने के बाद पहली बार इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में शामिल हुए। वह इंदिरा और डॉ मनमोहन सिंह सरकार में वह वित्त मंत्री रहे। इसी तरह नरसिम्हा राव और मनमोहन सरकार में रक्षा और विदेश सरीखे अहम विभागों के मंत्री रहे। साथ ही वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे।पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद PM के लिए उनका नाम चला।

आपको बता दें  कि उन्हें दुनिया की नामचीन मैगजीनों नेे बेेस्ट विदेश मंत्री और बेस्ट वित्त मंत्री भी चुना। अगर बात कांग्रेस की करें तो वह राज्यसभा और लोकसभा दोनों में पार्टी के नेता भी रहे। डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA-2 सरकार ‘संकटमोचक’ की भूमिका में रहे। उनके राष्ट्रपति बन जाने के बाद पार्टी एक रणनीति कार के रूप में उनकी कमी आज तक भी पूरी नहीं हो पाई है।

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प्रणब मुखर्जी की ‘स्टेट्समैनशिप’ और विद्वता के पक्ष और विपक्ष दोनों बराबर कायल रहे। ये अजीब बिडम्बना रही कि उन्हें सियासत के राष्ट्रीय पटल पर प्रकाशमय करने में इंदिरा का योगदान रहा। लेकिन उनके पुत्र राजीव गांधी से उनके रिश्ते बिगड़ गए थे। उस कड़वाहट के बीच प्रणव दा नेे ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’ नामक दल बना लिया। लेेेकिन फिर 1989 में जिंदा ही उसे 1989 में कांग्रेस में विलय भी कर दिया था।

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(लेखक जाने-माने टेलीविजन पत्रकार हैं)

File Photo: साभार FB पेज

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