By Rahul Singh Shekhawat
एक बार फिर उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के लिए खुद अपने मंत्री-विधायक और मातहत अफसरों की कार्यशैली फजीहत का सबब बनी है। भाजपा के एक MLA ने विधानसभा में कार्य स्थगन प्रस्ताव लाकर और दूसरे विधायक ने IAS अफसर की कथित बददिमागी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के नोटिस से असहज कर दिया। बची खुची कसर सत्र खत्म होते ही राज्यमंत्री रेखा आर्य की अपने मातहत IAS अफसर के अपहरण की तहरीर पुलिस को तहरीर देकर पूरी कर डाली।
कहने की जरूरत नहीं कि लोहाघाट से भाजपा विधायक पूरन फर्त्याल लंबे समय से टनकपुर-जौलजीवी सड़क निर्माण की टेंडर प्रक्रिया में कथित भृष्टाचार पर हल्लाबोल करते आ रहे हैं। उन्होंने हालिया सत्र के दौरान सदन में इस मामले पर काम रोको प्रस्ताव लाकर कथित जीरो टॉलरेंट सरकार को असहज कर दिया। संसदीय कार्यमंत्री मदन कौशिक को न्यायालय में मामला विचारधाराधीन होने की बात कहकर पिंड छुड़ाना पड़ा। विधायक खुले आम त्रिवेंद्र राज की कथित ‘जीरो टॉलरेंस’ पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
किच्छा से भाजपा विधायक राजेश शुक्ला के सदन में विशेषाधिकार नोटिस पर पीठ का संचालन कर रहे डिप्टी स्पीकर ने जांच के निर्देश दिए। दरअसल, शुक्ला ने गृह जिले के तत्कालीन DM नीरज खैरवाल ने सवाल की जानकारी देने की बजाय प्रभारी मंत्री कौशिक की मौजूदगी में उनकी याददाश्त पर सवाल खड़े कर दिए थे। जिससे गुुुस्साए MLA बिफर गए और अधबीच मीटिंग छोड़ कर चले गए थे।इस कड़ी में जब सरकार नेे कार्यवाही नहीं कि तो उन्होंने विधानसभा को नोटिस भेज दिया था।
उधर, विधानसभा सत्र खत्म होते ही महिला एवं बाल विकास राज्यमंत्री रेखा आर्य ने अपने विभागीय अफसर वी षणमुगम के अपहरण की तहरीर SSP को भेज दी। तुर्रा ये था कि कतिपय विभागीय धांधलियों की जांच चल रही और वह फोन रिसीव नहीं कर रहे हैं। जिस पर शासन से उनके आइसोलेशन में होने की बात कही। दिलचस्प बात ये है कि षणमुगम की गिनती साफ छवि के अफसरों में होती है। इसके पहले रेखा की विभागीय मुखिया रही IAS राधा रतूड़ी गृह जिले के तत्कालीन DM सबिन बंसल से इस कदर खटपट रही है।
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फिलहाल मामले की नजाकत को देखते हुए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने मुख्य सचिव को जांच कराने को कहा है। वैसे उनकी सरकार अफसरों की नाफरमानी कोई नई बात नहीं है। खुद शासकीय प्रवक्ता और शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक भी इसका शिकार हो चुके हैं। उन्होंने बीते जुलाई महीने के दौरान सचिवालय में कुंभ मेला 2021 तैयारियों की समीक्षा बैठक बुलाई थी। जिसमें सम्बंधित विभागों के सचिव नहीं पहुंचे और गुस्साए कौशिक बैठक छोड़कर चले गए थे। अगर IAS उनकी मीटिंग को हवा में उड़ा रहे हैं तो आप हालात खुद समझ सकते हैं।
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इस कड़ी में कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडे ने कथित तौर पर निकम्मे अफसरों की केंद्र से शिकायत करने की। इसी तरह मंत्री सतपाल महाराज भी पूर्व में अफसरों के बर्ताव पर अप्रत्यक्ष सवाल खड़े कर चुके हैं। भाजपा के अधिकांश विधायकों की शिकायत रहती है कि अफसर नहीं सुनते।कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ विधायक बिशन सिंह चुफाल भी हाल में J P नड्डा से मुलाकात करके अपना दुखड़ा रो चुके हैं।
आपको बता दें कि रह-रह कर जनप्रतिनिधि और अफसरों की तनातनी के वाकये पेश आते रहे हैं। मुख्य सचिव अपने मातहतों को खत लिखकर ताकीद कर चुके हैं कि सांसद-विधायकों के सामने कुर्सी से उठकर प्रोटोकॉल पूरा करें। इस कड़ीं में खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि अफसर भूल जाते हैं कि वो जनप्रतिनिधि नहीं हैं, उन्हें याद दिलाना पड़ता है। इन दोनों के कहने के बावजूद स्थिति में बदलाव नहीं आया। अलबत्ता सत्ताधारी दल के विधायकों में अंदरूनी तौर पर असंतोष है। जिसके चलते नेतृत्व परिवर्तन की हवाई फायरिंग भी होती रहती है।
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कहने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका दोनों विकास नामक गाड़ी के दो पहिए हैं। मंत्री-विधायकों के भी गलत काम करने के लिए अफसरों पर दबाव डालने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन ये भी जिंदा हकीकत है कि अफसरशाही का रवैया काबिलेतारीफ तो नहीं रहा। चूंकि खुद मुख्यमंत्री कतिपय IAS अफसरों से घिरे हैं। लिहाजा खुद अफसरों के बड़े तबके में अंदरूनी तौर पर कार्य वितरण में असंतुलन को लेकर भारी असंतोष है।
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बेशक त्रिवेंद्र सिंह रावत की लफ्फाजी से दूर सोच- समझ कर काम करने की एक अलग शैली है। लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि प्रचंडतम बहुमत वाली सरकार के मुखिया होने के बावजूद वह लोकप्रिय या जननेता की छवि नहीं बनाने में नाकाम रहे हैं। जिसकी एक वजह उनकी चुनिंदा IAS पर निर्भरता और आम जनता एवं कार्यकर्ताओं से परस्पर संवाद में कमी है। सनद रहे कि कोरोना काल खत्म होते ही मिशन 2022 का पूर्ववर्ती चरण या कहें कि चुनावी साल शुरू हो जाएगा।
ये ठीक है कि मोदी-शाह के राज में मुख्यमंत्री आसानी से नहीं बदलते। खुद मुख्यमंत्री भृष्टाचार पर कथित जीरो टॉलरेंट की बात करते रहे हैं। लेकिन अतीत इस बात का गवाह है कि उत्तराखंड की जनता दुबारा सत्ता नहीं सौंपने में जीरो टॉलरेंट रही है। स्वार्थी सरकारी तंत्र की डुगडुगी से वाहवाही कराकर चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है। लिहाजा रावत को अब जमीनी हालत को समझकर चुनावी दृष्टि से मंथन की जरूरत है।
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