खास खबर

भारत में पुलिस: कोरोनाकाल में फ्रंट वॉरियर की भूमिका से बदली इमेज !

×
Latest Posts
By Amit Srivastava

किसी भी आपदा, दुर्घटना या अप्रिय स्थिति में फर्स्ट रेसपॉन्डर की अपनी भूमिका की वजह से पुलिस को भी कोरोना का दंश मिलना शुरू हो चुका है. इस विषाणु से अकेले मुंबई पुलिस के सौ जवान से ज़्यादा शहीद हो चुके हैं और पूरे महाराष्ट्र में लगभग पांच हज़ार पुलिस कर्मी संक्रमित. उत्तराखंड पुलिस में दस जून को संक्रमण का पहला प्रकरण आने के बाद अब तक सवा सौ से ज्यादा कर्मियों के संक्रमित होने की सूचना है. बाकी राज्यों में भी पुलिसकर्मी संक्रमण के फैलाव के अनुपात में मृत्यु या बीमारी के शिकार हुए हैं. लॉकडाउन के समय से पुलिस सबसे आगे रहने वाले लोगों में से है. जब तक कम्युनिटी ट्रांसफर की स्टेज नहीं आई थी, हालांकि आधिकारित तौर पर इसे नहीं कह सकते कि ऐसी स्थिति देश में आ चुकी है, ये कहा जा सकता था कि पुलिस वाले सामान्यतः डॉक्टर के बाद दूसरे नम्बर पर पोटेंशियल विक्टिम हैं, लेकिन अब निश्चित तौर पर पुलिस और डॉक्टर्स बराबर के ख़तरे झेल रहे हैं. सही मायनों में इसे `विक्टिमाईजेशन ड्यू टू प्रोफेशन’ कह सकते हैं जिसका हिन्दी तर्जुमा शायद `व्यवसाय या काम की वजह से प्रताड़ना’ होगा.

पुलिस के पास अपने बचाव का कोई रास्ता है !

ज़रूरी बात ये है कि पुलिस के पास अपने बचाव के लिए न तो प्रशिक्षण है, न समझ और न ही सुविधा. ऐसे में पुलिस लगातार संक्रमित लोगों के पास उनके बीच लगभग निरुपाय खड़ी है. इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में किसी बीमारी से मरने वाले पुलिसकर्मियों के दृष्टांत बहुत कम हैं. वैसे भी हम कब तक आंकड़ों में, संख्याओं में देखते रहेंगे किसी आपदा को. एक व्यक्ति का मरना सिर्फ एक व्यक्ति का मरना नहीं होता. ख़ासतौर पर तब, जब उस व्यक्ति की पारिवारिक, सामाजिक के साथ-साथ संगठनात्मक उपस्थिति होती है.

Click here भारत में त्योहार में बढ़ेगा कोरोना !

ये ठीक है कि इस वायरस से संसर्ग के बाद मृत्यु की प्राययिकता कम है, लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि इस वायरस की अनिश्चितता बहुत ज़्यादा है. कुछ मरीज़ों को ये बिल्कुल वक्त नहीं दे रहा कुछ जल्दी ठीक हो जा रहे हैं. इस बात को अभी निश्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता कि ठीक होने वाले किन कारणों से ठीक हो रहे हैं और जो नहीं ठीक हो रहे हैं उनके कारण क्या हैं. ये ज़रूर तय है कि पहले से बीमार और बुजुर्गों के लिए खतरा ज्यादा है. क्या ये कम चिंताजनक बात है? पुलिस महकमे में स्वास्थ्य और ड्यूटी के संतुलन वाली कसौटी पर किसी भी सिपाही दरोगा या उच्चाधिकारी को कस कर देखिये. अपने और परिवार जनों के स्वास्थ्य/न्यूट्रिशन को लेकर जानकारी और सुविधा का स्तर देखिये. फिर इस तथ्य को दुबारा पढ़िए कि कोरोना वायरस को बीमार बुजुर्ग और कम प्रतिरोधक क्षमता वालों को ख़तरा है. एक अजीब किस्म का भय तारी होने लगता है.

भारत में समाज और सिस्टम को पुलिस से ज्यादा उम्मीदें!

इन भयावह तथ्यों के बीच समाज और सिस्टम को पुलिस से अपेक्षाएं सबसे ज़्यादा हैं. इन्हीं भयावह तथ्यों और भय के बीच पुलिस अपने काम में लगी हुई है. जनता के साथ सम्पर्क बढ़ाने और उन्हें इस बीमारी के प्रति जागरूक करने का पहला और बड़ा जिम्मा पुलिस ने लिया और इसके लिए देश भर में तमाम नए-पुराने तरीके अपनाए गए. देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान लोगों को घरों में रहने, सामाजिक या शारीरिक दूरी का पालन करने और स्वच्छता के प्रति जानकारी देने का काम बिलकुल नया था. कहीं कोरोना वायरस का मुखौटा, कहीं यमराज के रूप में उसका अभिनय, कहीं सफ़ेद घोड़े पर वायरस का चित्र बनाकर तो कहीं वायरस सा दीखता हेलमेट लगाकर पुलिस कर्मी जनता से मुख़ातिब हुए और इस वायरस की विभीषिका से लोगों को आगाह किया. इस दौरान देश ही नहीं विदेशों में भी छोटी फिल्मों, डिस्प्ले बोर्ड और वायरस के ऊपर बनी पैरोडी और गीतों का भी बोल बाला रहा. आज भी जारी है. सवाल स्वाभाविक है कि पुलिस की इन कार्यवाहियों से उसकी परम्परागत छवि के बरक्स कोई अलहदा तस्वीर उभर रही है या नहीं?

Click here जानिए कहां तीन तलाक वाली मंत्री बनी

इसी तरह की सक्रियता सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर भी बहुत दिख रही है. ये देखना दिलचस्प होगा कि पुलिस द्वारा इसका इस्तेमाल किस कुशलता से किया जा रहा है और यह भी कि सोशल मीडिया प्लेटफोर्म की खुद की पहुँच कितनी है. भारत में एक आंकड़े के अनुसार लगभग 290 मिलियन (29 करोड़) लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं जो खुद अमरीका से लगभग 100 मिलियन उवभोक्ताओं से ज्यादा हैं. अगर भारत के फेसबुक यूज़र्स का एक देश बने तो वो विश्व का चौथा सबसे बड़ा देश होगा. लेकिन अगर प्रतिशतता की दृष्टि से देखें तो ये देश की कुल जनसंख्या का पांचवा भाग ही बनता है. ऐसे ही दूसरे सबसे लोकप्रिय माध्यम वाट्सएप पर भारत के 20 करोड़ एक्टिव मंथली यूज़र्स हैं. उम्र, आय समूह और भौगोलिक अवस्थिति कुछ और बेहतर खुलासे कर सकती है. मोटी बात ये है कि भारत की बहुसंख्य जनसँख्या अब भी इन माध्यमों से दूर है.

अभी पिछले चार-छः महीने के इस कोरोना-काल ही नहीं बल्कि इधर कई सालों से भारत में पुलिस सुधार को लेकर बहुत प्रयत्न किए जा रहे हैं. दरअसल पुलिस रिफॉर्म्स भी एक तरह का मिसगाइडेड या लक्ष्यच्युत मिसाइल है. रिफॉर्म में कई और ज़रूरी बातों को छोड़कर जबरिया पुलिस की इमेज को धो-पोंछकर साफ करने की कवायद की जा रही है. गाँव एडॉप्ट करने से लेकर कम्बल बाँटने तक, नुक्कड़ नाटक से लेकर कविता-गीत, बैनर- पोस्टर तक कितने ही सामूहिक, संस्थागत और व्यक्तिगत प्रयास हैं जो कोलोनियल इमेज की नींव पूरी ताकत के साथ हिलाने में लगे हैं. टूटने को तो अभी कंगूरे भी नहीं टूटे हैं. पुलिस के कामों की अत्यधिक मात्रा, रहने-खाने जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव और कार्य करने की ख़राब परिस्थितियों को लेकर भी कोई तटस्थ-ठोस विचार नहीं बल्कि एक अलग किस्म का भावुक रूदन दिखता है. संतुलित और व्यावहारिक एप्रोच की जगह ये गलदश्रु स्यापा पुलिस रिफॉर्म के लक्ष्य से बहुत भटका देता है.

भारत में पुलिस का चित्रण सही हो रहा है!

एक और प्रश्न जो इससे वाबस्ता है वो ये कि रिपोर्टिंग क्या हो रही है? अखबारों, न्यूज़ चैनलों और तो और साहित्य की हिंदी पट्टी में पुलिस को किस तरह से चित्रित किया गया है. ये मानते हुए कि तंत्र और राजनीति के सबसे धारदार हथियारों में से एक है पुलिस, उससे डरना और घृणा करना बहुत सम्भव है (और सुविधाजनक भी) लेकिन पुलिस का जैसा चित्र यहाँ दीखता है वो क्रूरता से अलग कोई चीज़ है. उसमें जुगुप्सा पैदा करने का प्रयास है. ख़बरें तो फिर भी ठीक हैं, कहानी, उपन्यास और यहाँ तक कि कविताओं में भी पुलिस ऐसी ही क्यों दिखती है जैसे किसी लिजलिजे गंदे जीव को देखकर आपको उबकाई आ जाए?

उबकाई और भावुक रूदन दोनों ही अतिरेक एक तीसरा आश्चर्य नहीं पैदा करते? ये दोनों ही बातें एक ही संस्था को लेकर कही जा रही हैं. कोई भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि आम जनता पुलिस को देखकर डरती है या उल्टी करने लगती है. क्योंकि अपना अनुभव, रिपोर्टिंग और ये इमेज मेकिंग तीनों मिलकर आम जन में संस्था के रूप में पुलिस के चरित्र और रोल को लेकर चले आ रहे एक कन्फ्यूजन को और ठोस बनाते हैं. उल्लेखनीय बात ये है कि भ्रम की यही स्थिति पुलिस में भी है. आमजन और खुद पुलिसजन का भ्रम इमेज में भी झलकता है. संस्था के रूप में बनी हुई इमेज से जब किसी व्यक्ति की इमेज अलहदा दिखने लगती है तो कहा जाता है कि ‘वो तो पुलिसवाले लगते ही नहीं हैं.’ इसी तरह परम्परागत छवि की हल्की सी भी उपस्थिति पुष्टि पूर्वाग्रस्त व्यक्ति को सुकून देती है.

पुलिस का काम और कार्यशैली ही उसकी असली इमेज है !

हालांकि इमेज मेकिंग एंड शेकिंग के इन प्रयासों के बीच तथ्यात्मक बात दरअसल यह है कि इमेज बनाने से नहीं बनती. इमेज वो बनती है जो आप होते हैं! आपके, यानि पुलिस के होने का पैमाना भी बड़ा सीधा सरल है. पैमाना मात्र ये है कि `आपके होने से अपराधी को डर और निरपराधी यानि आमजन को ताकत का अहसास होना चाहिए.’ इसी कोरोना काल के दौरान अमरीका में `आई कांट ब्रीद’ जैसा सामाजिक आन्दोलन भी जोर पकड़ता है जब एक पुलिस अधिकारी के घुटने के नीचे दबकर जॉर्ज फ्लोयड नामक व्यक्ति दम तोड़ देता है और 2014 में पुलिस की बर्बर कार्यवाही के ख़िलाफ़ पहली बार अस्तित्व में आये इस नारे और `ब्लैक लाइव्स मैटर’ के सामाजिक बराबरी के सन्देश के पीछे पूरा अमरीकी समाज खड़ा दिखाई देता है. पुलिस प्रतीकात्मक रूप में ही सही, घुटनों के बल आ जाती है. कहने का आशय यह है कि आन्दोलन हवाई नहीं है बल्कि पुलिस की ठोस नकारात्मक छवि के बरक्स खड़ा हुआ है.

दुनिया भर में इस बीमारी के प्रति पुलिस प्रतिक्रिया का मॉडल एक देश से दूसरे में कॉपी किया गया है. लगभग हर देश में एक समान कंट्रोल रूम बने और जो काम एक देश की पुलिस ने किया वही दूसरे देशों ने भी अपनाया. यहाँ तक कि शुरुआती दौर में जब अमरीका जैसे देश `हर्ड इम्युनिटी’ के रस्ते चले और गतिविधियों को बड़े पैमाने पर बंद करने से बचे, पुलिस कार्यवाही लगभग वही थी जो लॉकडाउन लागू करने वाले देशों में थी. लेकिन फिर भी एक मामूली सा दिखने लेकिन बड़े अदृश्य सन्देश वाला अंतर भी दिख रहा है. जिन देशों में पुलिस की स्थिति सोशल गार्जियन की समझी जाती है वहां जनता के लिए गैर आपात स्थिति में `फ्रंट डेस्क’ कार्यवाहियों को बंद करके ऑनलाइन सम्पर्क करने के लिए कहा गया, अपराध होने पर कम से कम गिरफ्तारी पर जोर दिया जा रहा है या गिरफ्तारी के दूसरे तरीके अपनाए जा रहे, सम्मन, टिकेट जैसी व्यवस्थाएं की जा रही हैं, ऑनलाइन उपस्थिति और गवाही बढ़ाई जा रही है जबकि दूसरे विकासशील देशों में जहाँ औपनिवेशिक ढांचा बरकरार है, इस दौरान गिरफ्तारियां भी हुईं, दमन के और भी तरीके पुलिस द्वारा अपनाए गए हैं.

कोरोनाकाल में बिना ट्रेनिंग पुलिस ने नई चुनौती का सामना किया

भारत में पुलिस के पास क्वारंटीन या सेल्फ आइसोलेशन के नियमों का उल्लंघन, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, बीमार या बीमार हो सकने लायक लोगों की आमदरफ्त के प्रबंधन जैसे काम जिनका कभी कोई औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण नहीं था। से लेकर आपदा संसाधनों जैसे मास्क, दवाइयां, ऑक्सीजन सिलिंडर सैनीटाइजर की काला बाजारी पर रोक जैसे काम किये जा रहे हैं और इस डर के साए में इन्हें करना कि बीमारी ख़ाकी की हनक नहीं समझती, पुलिस की एक अलहदा तस्वीर पेश ज़रूर करते हैं. लेकिन उसके प्रतिपक्ष में इससे बन रही इमेज के कंट्रास्ट में भी बहुत कुछ दिखाई देता है. सड़कों पर चल रहे मजदूरों और आम जनता को लाठी से खदेड़ने से लेकर उन्हें सरे आम मुर्गा बनाने के भी प्रकरण सामने आते हैं. संभव है अस्पष्ट या लगातार बदल रहे दिशा-निर्देशों की वजह से ही ऐसा हुआ हो लेकिन दरअसल ये उसी औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है जिसके रहते हुए छवि बदलने की छटपटाहट शरीर वही रहने और महज़ चोला बदलने या शक्ल वही रहने और आईना बदलने की कवायद हो जाती है.

इसलिए ये कहना शायद जल्दबाजी होगी कि इस बीमारी के खत्म होते-होते या नियन्त्रण में आते-आते पुलिस की इमेज आम जनता में ज्यादा लोकतांत्रिक, ज्यादा सहृदय, ज्यादा मित्रतापूर्ण, ज्यादा पेशेवर बन ही जाएगी क्योंकि इस बात को संतुलित नजरिये से समझने वाले लोग बहुत कम हैं.  भारत में पुलिस ने भी अपने `होने’ के पैमाने को बिसरा दिया है. इसीलिये अच्छे काम पर भी बहुत कम मिलती है पुलिस को शाबासी. दरअसल बहुत कम थपथपाए जाते हैं वो कंधे, जो अमूमन सबसे बड़ा भार उठाते हैं. फिलहाल ये आशा ज़रूर पनप रही है कि पुलिस को लेकर जनता की और स्वयं पुलिस की अपेक्षाओं, नज़र और नजरिये में ज़रूरी बदलाव पैदा होगा और पुलिस भी पुलिसिंग के अपने मूलभूत कार्यों को करने के तरीकों में परिवर्तन करेगी और तब ही शायद छवि में कोई माकूल सुधार भी दिखाई देगा. अन्यथा –
`चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं! -कृष्ण बिहारी `नूर’

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा (IPS) के अधिकारी हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)

Comment here