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नजरिया

लव जिहाद ! यदि प्रेम है तो धर्म क्यों बदला जाए ?

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By Sushil Upadhyay

लव जिहाद (Love Jihad) का मुद्दा गाहे बगाहे चर्चा में रहता ही है। लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि किन्हीं भी दो युवा लोगों को साथ रहने, विवाह करने, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या अन्य कोई गतिविधि करने का अधिकार प्राप्त है। साथ रहने या विवाह करने के अधिकार पर यूपी हाईकोर्ट ने भी मुहर लगाई है, लेकिन एक सवाल लगातार बना हुआ है। वह सवाल ये है कि यदि साथ रहने के इच्छुक दो लोगों ने पारस्परिक प्रेम के कारण विवाह (Love Marriage) करने का निर्णय लिया है तो कौन-सी परिस्थितियां हैं, जहां प्रायः लड़की को अपना धर्म बदलना पड़ता है! यदि प्रेम है तो  फिर धर्म बदलने का सवाल ही क्यों उठता है?

तो मुस्लिम ससुराल पक्ष के दबाव में धर्म परिवर्तन लव जिहाद !

हम सभी को पता है कि पिछले दिनों में जिन मामलों का कई स्तरों पर प्रचार किया गया, उनमें लड़कियों ने लड़के के आग्रह है या ससुराल पक्ष के दबाव के बाद अपना धर्म परिवर्तित कर लिया। इन मामलों को मुसलमानों के साथ विशेष रूप से जोड़कर देखा गया और ऐसा देखे जाने की वजह भी है। यदि कोई हिंदू लड़की जैन, बौद्ध या सिख धर्म में शादी करती है तो वहां धर्म बदलने जैसा मामला गौण हो जाता है, बल्कि कुछ मामलों में हिंदुओं और ईसाइयों के बीच होने वाले विवाहों में भी धर्म का मामला अब उतनी प्रखरता से सामने नहीं आता जितना कि अब से कुछ साल पहले आता था। इस तरह से यह मामला पूरी तरह मुसलमानों के साथ जुड़ कर रह जाता है।

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यहां रोचक और ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल लड़की के मामले में ही नहीं, यदि कोई लड़का किसी मुस्लिम लड़की से प्रेम विवाह कर ले तो प्रकारांतर से यही सुनने में आता है कि उसने भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। यह पूरा प्रकरण अभी तक भावनात्मक और कुछ हद तक राजनीतिक मुद्दा बना रहा है। अभी हमारे सामने ऐसी कोई तथ्यात्मक स्टडी नहीं है जो यह स्थापित कर सके कि कितनी हिंदू लड़कियों ने मुस्लिम लड़कों से विवाह करने के बाद अपना धर्म बदला है या धर्म बदलने के लिए उन पर दबाव बनाया गया।

यहां यह बात भी ध्यान देने लायक है कि यदि शादी के बाद लड़की अपने पति के साथ ससुराल में रहती है या उसका मुख्य संपर्क अपनी पति के रिश्तेदारों से रहता है, जो कि उससे भिन्न धर्म के मानने वाले हैं, तो इस कारण भी लड़की का सांस्कृतिक-धार्मिक झुकाव अपने पति के परिवार के पक्ष में होना स्वाभाविक माना जा सकता है।

क्या हिंदुओं में ‘इंटरकास्ट मैरिज’ में हालात मुस्लिम से जुदा हैं ?

मेरे आस-पास ऐसे कई मित्र हैं जिन्होंने मुस्लिम, जैन, सिख या इसाई समुदाय में विवाह किया। ( हरिद्वार के ज्वालापुर क्षेत्र में तो कई ऐसे परिवार हैं, जहां बहुएं पुराने सोवियत संघ की हैं। इन परिवारों के लड़के कुछ दशक पहले डॉक्टरी की पढ़ाई करने रूस और उसके आसपास के देशों में गए थे। वे डिग्री के साथ साथ वहां से जीवन साथी भी लेकर आए और इन सबकी गृहस्थी, तमाम तरह की भिन्नताओं के बावजूद अच्छी चल रही है।)

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मेरी जानकारी में उपर्युक्त में से एक भी ऐसा मामला नहीं है, जहां धर्म के कारण विवाह न निभ पाया हो, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है मेरे परिचित इन सभी प्रकरणों में लड़की ने अपना मूल धर्म लगभग छोड़ दिया है।आधिकारिक तौर पर नए धर्म को ग्रहण किए बिना भी उसने पति के परिवार के रीति-रिवाजों को ही स्वीकार कर लिया। अलबत्ता, यह बात जरूर है कि कुछ मामलों में पति या उसके परिजनों द्वारा भी लड़की के धार्मिक विश्वासों का सम्मान किया जाता रहा है।

नाम परिवर्तन करके हिंदू लड़कियों को प्रभावित करके हो रहा लव जिहाद  !

ऊपर जितनी बातें कही गई हैं, यह तमाम बातें पढ़े-लिखे, समझदार और जागरूक लोगों से जुड़ी हुई हैं। अब बात उस तबके की जिसके कारण लव जिहाद जैसा शब्द गढ़ा गया, इसे सुनियोजित ढंग से प्रचारित किया गया और अंततः एक अवधारणा के रूप में स्थापित किया गया। अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे और छोटे-मोटे काम करने वाले मुस्लिम लड़के जब अपने हिंदू नाम आदि के आधार पर कथित तौर पर हिंदू लड़कियों को प्रभावित करते हैं तो यह प्रकरण काफी भयावह रूप से सामने आते हैं। देहरादून का कुछ साल पहले का एक मामला है, जिसमें एक सिख लड़की ने किताबों की दुकान पर काम करने वाले एक लड़के को हिंदू मानकर उससे विवाह कर लिया। बाद में पता लगा कि लड़का मुसलमान है।

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ऐसे बहुत सारे प्रकरण हमारे आसपास दिखते और सुनाई भी देते हैं। इस प्रकरण में लड़की के पास दो ही विकल्प थे या तो वह लौटकर वापस जाती या फिर प्रेम में मिले उस धोखे को, जो कि विवाह में परिवर्तित हो गया था, अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लेती। आप सभी लोगों को अमृता प्रीतम का ‘पिंजर’ उपन्यास याद होगा, जिस पर बाद में फ़िल्म भी बनी। दंगाइयों द्वारा पकड़ी गई वह लड़की जब लौटकर अपने घर आती है तो उसके पिता उससे अपना रिश्ता खत्म करते हुए दरवाजा बंद कर देते हैं। ऐसे मामलों में लड़की के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह अपने हालात को स्वीकार करने को मजबूर हो जाए।

क्या धार्मिक पहचान छुपा शादी करने पर सजा के प्रावधान की जरूरत है ?

यहां दो चीजों को स्पष्ट करने और उनके अंतर को समझने की जरूरत है। यदि प्रेम प्रकरण दो समझदार, जागरूक, शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्तियों के बीच है तो फिर धर्म का सवाल खुद ब खुद गुम हो जाता है, लेकिन यदि किसी मामले में धार्मिक पहचान को छिपाकर बहलाने -पुसलाने या प्रभावित करने की बात सामने आती है तो फिर इसके लिए मौजूदा कानूनों को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है, लेकिन ये कानून खाप पंचायतों की तरह के नहीं हो सकते। इन कानूनों में भी वैसी ही उदार दृष्टि दिखनी चाहिए, जैसी कि भारत के संविधान के उद्देश्य में निहित है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस आलेख में पूर्णतया उनके निजी विचार हैं)

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