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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस INC को खेवनहार मिलेगा तभी तो वजूद बचेगा !

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By Rahul Singh Shekhawat
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस  Indian National Congress  ‘द ग्रांड ओल्ड पार्टी’ आजाद हिंदुस्तान में अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। पिछले दो आम चुनावों में करारी हार के बाद उसके सामने नेतृत्व का गंभीर संकट है। वह 2014 में सिर्फ 44 और 2019 में 52 सीटें हासिल करके न्यूनतम स्तर पर रही। जबकि नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा ने अकल्पनीय बहुमत हासिल किया। मतलब पहले सोनिया गांधी (Soniya Gandhi) और फिर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की लगातार दूसरी सबसे बड़ी हार के बाद गांधी परिवार के करिश्मे पर सवाल उठने लाजमी थे। हाल में 23 वरिष्ठ नेताओं का खत उसकी अप्रत्यक्ष कड़ी है। सवाल ये उठता है कि वह हार के डरावने भूत से कैसे पीछा छुड़ा पाएगी ?
हार का आलम ये रहा कि केंद्रशासित मिलाकर देश के डेढ़ दर्जन से ज्यादा राज्यों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया। खुद राहुल (Rahul Gandhi) गांधी अमेठी में चुनाव हार गए थे। उन्होंने हार की जिम्मेदारी की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद इस्तीफ़ा दे दिया था। जिसके बाद किसी अन्य के नाम पर सहमति नहीं बनने पर सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया। जिस दौर में मोदी-शाह विपक्ष को खत्म करने पर उतारू हों कांग्रेस ‘एडहॉक अरेंजमेंट’ के सहारे है। गांधी परिवार के नेतृत्व रूपी ऑक्सीजन के बिना हांफने लगती है। सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव के कार्यकाल इसके पुख्ता उदाहरण हैं। उसी दौर में तिवारी कांग्रेस, मूपनार कांग्रेस और माधव राव सिंधिया की मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस कांग्रेस बनी थी।
फिलहाल कांग्रेस की सिर्फ पंजाब, राजस्थान, छतीसगढ़ और पुडुचेरी में सरकारें हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली अघाड़ी गठबंधन सरकार में शामिल है। पार्टी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और दिल्ली में जीरो पर है। उड़ीसा में दो दशक से सत्ता से बाहर और महाराष्ट्र में तीसरे नम्बर की पार्टी बन चुकी है। पश्चिम बंगाल में भी थर्ड नम्बर पर बने रहने का संघर्ष है। बिहार और उत्तरप्रदेश  में 90 के दशक से हाशिये पर चली गई। अतीत इस बात का गवाह है कि तीसरी पायदान पर पहुंचने के बाद वह उपर नहीं उठ सकी। उधर, पुरानी और नई पीढ़ी के बीच वर्चस्व को लेकर अघोषित जंग छिड़ी है। कांग्रेस में नेतृत्व संकट को भांपते हुए सोनिया की जगह शरद पवार को UPA की कमान देने की वकालत करने लगी है।

तो हारे हुए दिग्गज कराएंगे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बेड़ापार !

मुमकिन है कि राहुल गांधी फिर से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के अध्यक्ष बनें। अगर वह जिम्मेदारी नहीं संभालते तो कांग्रेस का खेवनहार कौन होगा ? पार्टी की मौजूदा शीर्ष पंक्ति के नेता 70 साल की उम्र वाले ग्रुप में हैं। मुख्यमंत्री रहते  खुद गहलोत राजस्थान में अपने बेटे वैभव को नहीं जीता पाए तो कमलनाथ अपने बेटे के अलावा मध्यप्रदेश में किसी और को नहीं जीता सके। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित, सुशील कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण, भूपिंदर हुड्डा, वीरप्पा मोईली, नबाम तुकी और हरीश रावत तक अपनी-अपनी लोकसभा सीटों पर चुनाव हार गए। अलबत्ता कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्रित्व वाले पंजाब में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया था।
सचिन पायलट बतौर उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष राजस्थान  में पार्टी के किसी एक प्रत्याशी को नहीं जीता पाए। पार्टी की यूथ ब्रिगेड की फ्रंट लाइन में शुमार जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा, भंवर जीतेंद्र सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद अपनी सीटें नहीं बचा पाए। वैसे सिंधिया तो अब बीजेपी में शामिल होकर मध्यप्रदेश की सरकार गिरवा चुके हैं। अगर महिला नेत्रियों की बात करें तो कुमारी शैलजा और सुष्मिता देव चुनाव हार गईं।  वैसे ये भी गौर करने के लायक है कि  युवाओं में अधिकांश वंशवाद के सहारे स्थापित हुए हैं। क्या इनमें अखिल भारतीय स्तर पर कार्यकर्ताओं में अलख जगाने की क्षमता है ?

तो कांग्रेस का ओवरहालिंग होना चाहिए !

कांग्रेस को दीर्घकालीन ओवरहालिंग की जरूरत है। कथित न्यू इंडिया के मतदाताओं के दिल में जगह बनाने के लिए एक खेप को मार्गदर्शकमंडल में भेजने अथवा उनकी भूमिका बदलने का वक्त आ गया है। अगर कांग्रेस को पुनर्जीवित करना है तो अब नए भुपेशबघेल तैयार करने होंगे। भविष्य के मद्देनजर नए अशोक गहलोत, हरीशरावत और YSR रेड्डी सरीखे नए जमीनी नेता ढूंढकर तराशने पड़ेंगे। इनका जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि सभी ने जमीन से उठाकर अपना-अपना मुकाम हासिल किया।
कोई माने या ना माने लेकिन कांग्रेस के कमजोर होने में गांधी परिवार के कथित वफादारों की अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। हाईकमान पर कुंडली मारे कथित वफादारों का घेरा कांग्रेस को पुराने फॉर्मेट से बाहर नहीं निकलने देता। जिनकी चापलूसी और चाटूकारिता के चलते 10 जनपथ और जमीन नेताओं में हमेशा दूरी रहती है। बची खुची कसर प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद पूरी हो गई। मानो कांग्रेस में राजनीतिक चातुर्य का तो अकाल ही पड़ गया। अब तो सोनिया के संकटमोचक रूपी राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल की मौत हो चुकी है।
मोदी-शाह की जोड़ी ने भारत की चुनावी राजनीति के मायने ही बदल दिए। वहीं कांग्रेस में जनमानस की नब्ज पहचानने के चातुर्य एवं समझ का भारी  टोटा है। कहा जाता है कि राहुल अनुभवी नेताओं की राय लेने में तो संकोच नहीं करते, लेकिन उसको लागू करने में ड्राइंगरूम एक्सपर्ट नेताओं अथवा सलाहकारों के एक समूह पर निर्भर रहते हैं। उनके चारों तरफ विदेशों में अच्छे पढ़े लिखे अथवा टेक्नोक्रेटस का घेरा है। जिसे सिरे से तो खत्म नहीं लेकिन कम करके जमीनी समझ रखने वाले ऊर्जावान नेताओं को तरजीह देने की जरूरत है।

कांग्रेस की कमजोर हालत के लिए जिम्मेदार कौन !

राहुल गांधी को इस दयनीय स्थिति में पहुंचाने का दोषी अकेले  ठहराना भी उनके साथ अन्याय है। दरअसल, इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस संजय गांधी के ‘जेबी संगठन’ में तब्दील हो गई। तब चाटुकरिता एवं चापलूसी से स्थापित हुए नेता मौजूदा वक्त में  पार्टी पर बोझ हैं। उस क्लब के तमाम महानुभाव गांधी परिवार की वफादारी के नाम पर जमीनी नेताओं को धकियाकर हमेशा एक समानांतर पॉवर सेंटर बने रहे हैं। ये कड़वी सच्चाई है कि सोनिया गांधी उन पर बहुत ज्यादा भरोसा करती रहीं। जबकि राहुल चाहते हुए भी अभी तक उनसे पीछा छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाए।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का जन्म तो शरद पंवार के नेतृत्व में विदेशी मूल के नाम पर सोनिया गांधी के नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह के फलस्वरूप हुआ था। भला पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और आंध्र प्रदेश में YSR कांग्रेस बनने के लिए जिम्मेदार कौन है? और जब कांग्रेस से अलग होकर ये पार्टियां बन रही थीं तो उसे रोकने के कितने गम्भीर प्रयास हुए थे ? आंध्र प्रदेश के तत्कालीन करिश्माई मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी (YSR) की मौत के बाद उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की महत्वाकांक्षाएं हिलौरे ले रही थी।
तो गलत निर्णयों से हुआ कांग्रेस का सूपड़ा साफ
लेकिन आंध्र में जनाधारविहीन रौसय्या को मुख्यमंत्री बनाने का गलत फैसला लिया गया। फिर जगन के बढ़ते जनाधार को काउंटर करने के लिए रौसय्या को हटाकर किरण रेड्डी को कमान दी गई। उन हालातों के बीच जगन ने पार्टी से विद्रोह करके YSR कांग्रेस के रूप में एक अलग पार्टी बना ली। 2014 के चुनावों की आहट के बीच यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में तेलंगाना राज्य का गठन हुआ। जिसके खिलाफ उभरे जनाक्रोश के मद्देनजर किरण ने भी कांग्रेस छोड़कर अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी।
इन घटनाक्रमों के सिर्फ पांच साल बाद 2019 में जगन मुख्यमंत्री बन गए हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस  उम्मीदवार ना तो लोकसभा और ना विधानसभा में जीतकर पहुंचने में सफल हो पाया। ये वही आन्ध्र प्रदेश है, जहां YSR रेड्डी ने मुख्यमंत्री रहते हुए 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनाने और फिर 2009 दूसरी को मजबूती देने के लिए एकतरफा सीटें  जीताकर कर दीं। कांग्रेस की आंध्र प्रदेश में स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि पहले तो सिर पिटा और फिर घर भी लुट गया। वहीं नेतृत्व की लचरता के चलते तेलंगाना में पार्टी के जीते डेढ़ दर्जन विधायक TRS में शामिल हो गए।
तो यहां सोनिया गांधी कांग्रेस चूक गईं !
मराठा क्षत्रप शरद पंवार ने सोनिया के विदेशी मूल के खिलाफ हल्ला बोल करके अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। लेकिन, 2004 में UPA के गठन के वक्त उनके नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी न सिर्फ मिलकर चुनाव लड़ते हैं बल्कि 10 साल सरकार साथ चलाई। लेकिन कभी दोनों पार्टियों के विलय के प्रयास नहीं हुए।  दरअसल, सोनिया बतौर अध्यक्ष कांग्रेस के लिए एक अच्छी कोऑर्डिनेटर साबित हुईं। गांधी परिवार की विरासत और अपने चातुर्य के दम पर क्षेत्रीय दलों को UPA नामक छतरी में लाकर केंद्र में लगातार दो बार सरकार बनवाने में कामयाब रही। लेकिन, वो कांग्रेस संगठन को अपेक्षित मजबूती देने में नाकाम भी रहीं।
लचर संगठन से इतर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती कथित न्यू इंडिया के युवा मतदाता को आकर्षित करना है। जिसने पहले बतौर प्रधानमंत्री सिर्फ ‘शांत’ डॉ मनमोहन सिंह के 10 साल देखे। उसके बाद ‘शोमैन’ नरेंद्र मोदी का कार्यकाल  देखकर तुलनात्मक रूप से अपने मनमानस में कांग्रेस की एक छवि गढ़ी है। मोदी देश में अपने हिसाब से राष्ट्रवाद का स्वम्भू ‘नैरेटिब’ गढ़ जनमानस को खुद की तरफ खींचने में कामयाब रहे हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि राहुल गांधी पूर्णकालिक राजनेता की कार्यशैली की छाप नहीं छोड़ पाए। लेकिन वह विपक्ष के इकलौते नेता हैं जो अपनी पार्टी के एक तबके की असहमति और हार के बाद भी प्रधानमंत्री पर हमलावर रहे। अगर मोदी से मुुकाबला करना है तो कांग्रेस को वैचारिक स्पष्टता लाइन पकड़नी होगी।
BJP में जीतने का जुनून लेकिन कांग्रेस में निष्क्रियता ! 
मौजूदा दौर में मोदी-शाह की जोड़ी ने राजनीतिक हार-जीत के नए पैमाने तय कर दिए हैं। हिंदी बेल्ट की भगवा पार्टी पूर्वोत्तर के असम और त्रिपुरा में झंडा गाड़ने के पश्चिम बंगाल का किला फतेह करने के मंसूबे पाले है। आलम ये है कि चुनावों में हारने के बावजूद बीजेपी तोड़तोड़ करके सरकारें बना रही है। कर्णाटक और मध्यप्रदेश इसके उदाहरण हैं। लेकिन कांग्रेसी  “करिश्मे” की आस की आदत छोड़कर जमीन पर काम करने की आदत डालने को तैयार नहीं दिखते। वह सोनिया-राहुल के बाद अब प्रियंका गांधी में कांग्रेस का भविष्य तलाशने की मृगतृष्णा पाले हैं। यह अहसास करने की जरूरत है कि हर चीज “एक्सपायरी डेट” होती है। वक्त के हिसाब से सोच और कार्यप्रणाली में मोडिफिकेशन की जरूरत पड़ती है।
सनद रहे कि 2014 की होश फाख्ता करने वाली हार के बाद कमोबेश साढ़े तीन साल राहुल की ताजपोशी तक निष्क्रियता की शिकार रही। इसी तरह 2019 में हार के बाद राहुल गांधी के इस्तीफे के चलते पिछले एक साल से कांग्रेस सोनिया के अंतरिम नेतृत्व हवाले है। कोरोनाकाल की दुश्वारियों के माहौल में बिहार में हुए पहले चुनावों मोदी के दम पर नीतीश कुमार में सत्ता में वापसी आए। कांग्रेस का स्थापना दिवस उसके गौरवशाली अतीत को पीछे मुड़कर देखने का मौका देता है। लेकिन मौजूदा नेतृत्व संकट उसके इतिहास बन जाने की आशंका पैदा करता है। अब ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नीति निर्धारकों पर निर्भर करेगा कि वह इसे झुठलाकर नया इतिहास बना पाएगी या नहीं !
(लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)

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