By Amit Srivastava
Standup Comedian Raju Srivastava और के के नायकर हमारे जीवन के पहले मिमिक्री आर्टिस्ट/स्टैंड अप कॉमेडियंस थे। नायकर तो कुछ ही न्यू इयर ईव कार्यक्रमों में आने के बाद जाने कहां गुम हो गए राजू लगातार एक गुदगुदी की तरह मिलते रहे। पहले सुना उनको फिर देखा। वो ज़माना ‘बकरा किश्तों पर’ जैसी शानदार चीज़ें सुनने–देखने का था। उसी ऑडियो–वीडियो कैसेट के ज़माने में उनका ‘हे मनोहर बिड़िया फेंक सुना रहा हूं सोले’ को सुनकर जाने कितनी दोपहरें ठहाकों से झंकृत होती रहीं। फिर दूरदर्शन पर उनके कई बार रिपीट हुए चुटकुले भी जाने क्यों हमेशा एक खिली–खिली मुस्कान ही दे जाते।
तो ऐसे थे कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव !
मुझे लगता है नॉन लिविंग थिंग्स के एक्सप्रेशन जिस तरह से राजू दिखा सकते हैं उतना शायद ही किसी के बस की बात हो। फिर सैटलाइट चैनलों और स्टैंड अप कॉमेडियंस की बाढ़ आ गई। विषयों का विस्तार हुआ लेकिन जिस ऑथेंटिक तरीके से गरीब गुरबा और मध्यम वर्ग राजू के चुटकुलों में आता रहा वो भी शायद ही किसी और के यहां मिले।
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यही वो समय था जब राजू को द्विअर्थी अश्लील चुटकुलों में फिसलते भी देखा। यही वो समय था जब राजनीति की आवश्यकताओं के लिए उन्हें बोलते–कहते भी देखा। अराजनैतिक रहना तो अब किसी के बस की बात नहीं चाहे आम इंसान हो या कोई सेलिब्रिटी लेकिन यह भी सच है कि राजनीति भरपूर कीचड़ से भरी हुई भी है। और उससे बच निकलना भी असंभव है। राजू भी फंसे रहे।
Standup Comedian Raju Srivastava
के चेहरे पर मुझे हमेशा एक अनिश्चितता दिखी, एक व्यग्रता, एक ऐसा चेहरा जो कहना बहुत कुछ चाह रहा है लेकिन जाने क्यों कह नहीं पा रहा है। जब सिर के पीछे दोनों हाथ बांधे बेहद लापरवाह दिखने की अदा में हों, तब भी। जैसे कई बातें कहने को हों एक मुनादी सी हो और शो खत्म हो जाए। चेहरे का ये अधूरापन अभी के सालों का नहीं है बल्कि हमेशा से लगता रहा है। जैसे कलाकारों के डुप्लीकेट्स को देखकर लगता है। शायद हमारे ज़ेहन में कलाकर का चेहरा इस कदर हावी हो जाता है कि डुप्लीकेट चाहे जितना भी कमाल का सुंदर और सुदर्शन दिखे हमें ख़राब लगता है।
राजू के चेहरे पर किसी सेलिब्रिटी के डुप्लीकेट होने की छाया थी, उनके गले में किसी और आवाज़ की अनुगूंज थी, वो शायद कुछ और भी होना चाहते थे. वो कुछ और भी कहना चाहते थे। अब कुछ नहीं कह पाएंगे। कुछ दिनों तक सोशल मीडिया का एलगोरिदम हमें उनके पुराने चुटकुले घुमा फिराकर सुनाएगा फिर हम भी किसी और आवाज़ को सुनने बैठ जाएंगे।
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा IPS के अधिकारी हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)
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