By Amit Srivastava
दो टूक बात करनी थी. दो टुकड़े सीरीज़ कम फ़िल्म (ज़्यादा) के बारे में एक ही लपेट में पेश हैं.
पहली दो टूक बात ये कि कुछ महीनों पहले ‘रसभरी’ वेब सीरीज़ आई थी. स्वरा बेहद क्षमतावान और संभावनाशील (दोनों शब्दों का एक ही मतलब छानने वाले इस पोस्ट का भी मतलब कुछ इतना ही भोथरा करेंगे, फिर भी पढ़ें) अभिनेत्री हैं. उनको स्क्रीन पर देखना और ऑफ स्क्रीन गतिविधियों से रजत पट की उस परम्परा के जिंदा होने की आश्वस्ति मिलती है जो बलराज साहनी, मज़रूह सुल्तानपुरी या ए के हंगल में रहती आई है. सीरीज़ पर पोर्न परोसने के आरोप लगे. पक्ष-विपक्ष के खूब खेल हुए.
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हिंदी, पोर्न के मामले में एक गरीब भाषा है. फिल्मों के बारे में उतने पक्के तौर पर नहीं कह सकता. यहाँ यह ज्ञान थोड़ा फॉरेन लग सकता है कि- अश्लीलता सिर्फ किसी सीन किसी, डायलॉग, अदाकार की किसी भंगिमा से नहीं से ही नहीं होती. कभी-कभी किसी सीन या डायलॉग के आशय या निहितार्थ भी कई डिग्री ऊंचे अश्लील हो सकते हैं.
रसभरी नामक सिरीज़ में तमाम बोल्ड सीन या डायलॉग होने के बाद भी सीरीज़ पोर्न नहीं कही जा सकती थी. लेकिन एक सीन है, आख़िरी एपिसोड के आख़िरी सीक्वेंस का, जब नायक को यह पता चलता है कि उसकी टीचर, रसभरी बन जाने का नाटक क्यों करती है- बस वहीं से वो सीरीज़ पोर्न हो जाती है. मज़े की बात ये है कि वहाँ टेक्निकली फ़िल्म खत्म हो जाती है. लेकिन कहानी नहीं. वो दर्शक के ज़ेहन में रिवाइंड होने लगती है.
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अब बिस्टा दूसरी दो टूक बात की. वैसे अश्लीलता का पैमाना भी जनता की सामूहिक चेतना से बनता-बिगड़ता -बदलता रहता है. कानून थोड़ा रुका हुआ मामला है. उसकी चेतना ज़रा ठहरकर जागती है.
‘मिर्जापुर-1’ देखी थी. सीरीज़ के लेखक मेरे स्कूल सीनियर रहे हैं और स्कूल मैगज़ीन में छपी उनकी एक कविता की शुरुआती लाइन पिछले लगभग तीस बरस से मेरे अंदर अटकी हुई है. मुलाहिज़ा फरमाएं-
‘उफ्फ ये दाढी
इससे तो अच्छी होती है साड़ी
कम से चोट तो नहीं देती
रेजर की ब्लेड तो गाल की खाल ही खींच है लेती’
कितने मासूम टीनएजर लफ्ज़ हैं. इसे लिखने वाले बाल कवि ने ही मिर्ज़ापुर लिखी है. मिर्ज़ापुर तो भई इतनी वयस्क है जितना कि ललगुदिया अमरूद… या बंद कमरों में मुसलसल चादरों का फटकना या… समंदर की रेत पर भागते हुए घोड़े या… या कि खुद ये शब्द ‘टीनएजर’. (पहली दफ़ा पचास के दशक में इस ‘टीनएजर’ शब्द ने इस दुनिया में अपनी किंचित गुलाबी आँखे खोली थीं. यानी अब ये शब्द भी ‘साठे पर पाठा’ है)
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वैसे इस सीरीज़ के पर्दे के ज़्यादातर कलाकारों को बेपर्द-हाड़मांस में जानता हूँ. (हिंदी इतनी भी गरीब नहीं है कि ‘रील और रियल’ जैसे क्लीशे पर ही निर्भर रहना पड़े.) वो दोनों ‘नायक’ भ्राता द्वय हमारे कॉलेज सीनियर थे. यहाँ ‘हमारे’ पर बलाघात है. इसमें कॉलेज में हमारे होने का इतना महत्व नहीं है जितना उस कॉलेज का ‘उस जैसा’ कॉलेज होने में है. इस ‘उस जैसे’ को भी पूर्व लिंगदोह काल के आलोक में देखें जब चुनाव लड़ चुके या चुने जा चुके छात्र संघ अध्यक्षों के जिंदा बचे रहने की प्राययिकता न्यून हुआ करती थी.
ख़ैर! भ्राता द्वय काफी सीनियर थे इसलिए उनके कारनामे देखे नहीं पर बड़े भाई साहबों के मुखारविंद से ‘विद एक्स्ट्रा शॉट ऑफ धनिया पुदीना’ सुने हैं. सीरीज़ में घटनाओं का आशय बहुत कुछ सत्य के आसपास है लेकिन इस बात का क्या करें कि सत्य ही थोड़ा सा अपनी जगह से हिला हुआ है इसी वजह से घटनाओं और उनके प्रदर्शन का निहितार्थ भी अपनी जगह से ज़रा ज़्यादा जगह घेर रहा है. ये घेरी हुई जगह शील की बाड़ाबंदी से बाहिर हो रही है. एनक्रोचमेंट का मसला बनता है. वैसे तो ये पोस्ट ट्रुथ काल है. सबका अपना-अपना पाठ है. इसलिए काउंटर-रिज्वाइनडर लगते रहेंगे. ट्विटरादि सोशल मीडिया पर ये खेल चल भी निकला है.
कानून के भीतरी सफ़हों में ये वक्त टीवी के दर्शकों को ott प्लेटफॉर्म पर पहुंचाने के गुणा-गणित का है. इस पर तब तक कोई सेंसर बोर्ड नाम की चिड़िया नहीं बैठेगी जब तक जनता इस चौखटे से उड़कर उस चौखटे पर सेफली लैंड नहीं कर जाती.
उसके पहले बारीक परिभाषाओं के तिनके उड़ते रहेंगे.
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा IPS के अधिकारी हैं और इस आलेख में उनके निजी विचार हैं)