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नजरियाब्रेकिंग

कोरोना: दिल्ली की सड़कों पर उमड़ा बदहवासी का सैलाब! ‘लॉकडाउन’ के बहाने बंटवारे की तस्वीरें याद आईं, क्यों जमीन अनुमान लगाने में फेल हुई नौकरशाही?

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Pramod Sah

हमने बंटवारा तो नहीं देखा लेकिन उसके किस्से जरूर सुने। दिल्ली में आनंद विहार बस अड्डे की कुछ तस्वीरें और सड़कों पर उमड़े काफिले को देखकर बरबस बंटवारे की दर्द भरी कहानी मन मस्तिष्क में उभरने लगी। उस वक्त के व्यवस्थापक नौकरशाहों के प्रति मन में बहुत सम्मान जाग गया।

तब एक तरफ देश आजाद हो रहा था दूसरी तरफ सरहद के दोनों तरफ टिड्डी दलों की तरह लोगों की आवाजाही जारी थी। बदहवास लोग बैलगाड़ी, बस, रेलगाड़ी और पैदल ही सरहद पार कर रहे थे। उनके तन पर कुछ कपड़े, सिर पर कुछ जरूरी सामान का बॉक्स था। सरहद पार करने वाले लोगों के पास ना कोई पता था और ना ही कोई ठिकाना। सब जान बचाने के खातिर अपनी जड़ें, उसकी यादें और जीवन भर की कमाई छोड़कर इधर-उधर जाने में लगे थे। उन मुश्किल भरे हालात में भारत के दो नौकरशाह सरदार त्रिलोक सिंह और प्रताप सिंह पुनर्वास का शानदार काम किया। जिसने उन्हें  नौकरशाहों को इतिहास में अमर कर दिया।

बंटवारे ने भारत के शहरों का भूगोल तो नहीं बदला लेकिन जनसंख्या का गणित इस कदर बदल दिया कि शहरों का स्वरूप पूरी तरह बदल गया। सबसे पहला शहर बसा कुरुक्षेत्र जहां तीन लाख नए लोगों ने डेरा डाल लिया। दिल्ली और मुंबई के हिस्से 5 -5 लाख और तत्कालीन कलकत्ता ने पूर्वी बंगाल से आए17 लाख लोगों को खुद में शामिल किया। धीरे धीरे एक नया हिंदुस्तान बस गया। हर रोज कुरुक्षेत्र की टेंट कॉलोनी में 100 टन गेहूं का आटा खपता था।

उस वक्त बात सिर्फ यहां आकर बस जाने की ही नहीं थी बल्कि उसे पाकिस्तान में छोड़ी संपत्ति के अनुपात में जमीन भी दी जानी थी। यह काम आसान नहीं था क्योंकि पाकिस्तान से लोग 27 लाख हेक्टेयर छोड़कर आए थे। जबकि भारत छोड़कर उधर जाने से सिर्फ 19 लाख हेक्टेयर जमीन खाली हो पाई। पाकिस्तान के पंजाब की जमीन जहां बेहद उपजाऊ थी। वहीं उसके उलट हरियाणा और उसके आसपास की जमीन बहुत कम उपजाऊ और डूब क्षेत्र की थी।

लेकिन सरदार त्रिलोक सिंह ने भूमि वितरण की वह ग्रेड व्यवस्था की कि सब कुछ बहुत जल्दी काबू में आ गया। सरदार त्रिलोक सिंह लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के पढ़े हुए थे। उन्होंने अपने हुनर को साबित करते हुए बंदोबस्त की योजना बनाई। जिसमें शक्ति और समर्पण बहुत मायने रखता है।  इसी तरह प्रताप सिंह ने बम्बई शहर में शरणार्थियों के दबाव का सामना करते हुए व्यवस्थित जीवन दिया।

आज कोरोना से लड़ने के लिए हुुए लॉकडाउन  के बाद  अपने घर जाने वाली भीड़ के तो निश्चित ठिकाने हैं। उनके पीछे लूट जाने का भय भी नही है। और ना ही यह संख्या उतनी बड़ी है जितनी बंटबारे के वक्त थी। फिर भी यह तस्वीरेें वैसी ही क्यों है ? हम वह व्यवस्था क्यों नहीं बना पाए जिसकी हमें दरकार थी।

यह हमारे नियोजन और आधुनिक नौकरशाहों की कमजोरियों को जरूर दर्शाता है। आखिर हम जमीनी हकीकत का अनुमान लगाने में असफल क्यों हो जाते हैं। क्यों हम एक सरल और ग्राह्य व्यवस्था उपलब्ध नहीं करा पाते? लॉक डाउन के बाद जब सब कुछ सामान्य होगा कुछ ऐसी कहानियां निकल कर आएंगी जो हमे हमेशा शर्मिंदा करते रहेंगी।  आधुनिक भारत की नौकरशाही को खुद से जरूर पूछना चाहिए कि आखिर हम अराजकता को आमंत्रित करते क्यों हैं?

(लेखक उत्तराखंड पुलिस सर्विस के अधिकारी हैं और इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

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