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15 अगस्त के बहाने ‘मेरे देश की धरती’ की याद आ आई !

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By Lalit Mohan Rayal

कोई राष्ट्रीय पर्व रहा हो या सरकारी जलसा. रामलीला रही हो या मेला, गुजरे दौर में ऐसा कोई मौका नहीं होता था, जब इस गीत को न सुना गया हो. लंबे अरसे तक यह गीत, मात्र एक गीत न होकर, एक खेतिहर देश का मिशन स्टेटमेंट बना रहा.

गुजरे दौर में, जिस किसी भी नौजवान ने खेती की हो, वो याद करे तो उसे महसूस होगा, उसने सिर पर गमछा बांधकर, कंधे पर हल तानकर इस गीत को जरूर गुनगुनाया होगा. खास तौर पर ”इस धरती पर जिसने जन्म लिया, उसने ही पाया प्यार तेरा’ का बोल गाते समय तो जज्बाती युवकों के रोम-रोम खड़े हो जाते थे.

फिल्म ‘शहीद’ बनाकर मनोज कुमार अपार प्रसिद्धि पा चुके थे. उन्होंने फिल्म बनाई भी मन से थी. कहानी में तथ्यों को यथावत् बनाए रखने के लिए उन्होंने मन लगाकर परिश्रम किया. ‘द हिंदू’ व पुराने जमे-जमाये अखबारों के दफ्तरों में महीनों खाक छानी. ‘एचएसआरए’ की तीसरे दशक की गतिविधियों की पूरी-पूरी खबरें पढ़ी. कहने का तात्पर्य है कि वे यथार्थ से किसी भी तरह का समझौता नहीं चाहते थे.

आजादी के बाद खाद्यान्न समस्या, देश की एक बड़ी समस्या बनकर उभरी. हालांकि अमेरिका ने मानवीय-सहायता या खाद्य-सहायता के नाम पर, थर्ड वर्ल्ड मुल्कों की मदद तो की, लेकिन आत्मनिर्भरता की आस लगाए मुल्कों को ये मदद, असमंजस भरी लगती थी.

पब्लिक लॉ 480 के अंतर्गत दी जाने वाली यह मदद, हमारे मुल्क में पीएल 480 के नाम से जानी गई. कई लोग तो इसका मतलब गेहूँ की खास किस्म से लगाते रहे, जबकि यह था अमेरिका का राहत संबंधी कानून. पीएल 480 के कहन में एक तरह का व्यंग्य जैसा भाव झलकता था. स्वाभिमानी देशवासी इससे नाखुश थे. खाद्य संकट इतना विकट था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री को देशवासियों से सप्ताह में एक बार उपवास रखने की अपील करनी पड़ी.

65 का युद्ध, खाद्य-समस्या, अनियोजित परिवार और कालाबाजारी तब देश की ज्वलंत समस्याएं थीं. शास्त्री जी ने मनोज कुमार को सुझाव दिया, कुछ ऐसा बने कि कृषि प्रधान देश में आत्मनिर्भरता का संदेश पहुंचे. अन्न उपजाने वाले किसान को उसका यथोचित् स्थान मिले.

ग्रामीण भारत के बहाने, तब की ज्वलंत समस्याएं कहानी में आईं. मनोज जी के सामने एक बड़ा संकट था- वे फिल्म के हीरो का नाम क्या रखें. आराध्य देव के नाम पर राम रखें या शंकर.

तभी उन्हें विचार आया कि भारत तो गांवों में बसता है. ऐसे में ‘भारत’ नाम के किसान से खूबसूरत प्रतीक क्या हो सकता है? यही वो फिल्म थी, जिसने उन्हें ‘भारत कुमार’ बनाया.

इस बीच हरित क्रांति और उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की मदद से देश में खाद्यान्न उत्पादन कई गुना बढ़ा, जिससे वह आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ा. गीतकार गुलशन बावरा ने जब अनाजों से लदे ट्रक-के-ट्रक, गोदामों की तरफ जाते हुए देखे, तो वे खुशी से भर उठे. उस मनोदशा में उनके मन से बोल फूट पड़े.. मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती..

मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती

मेरे देश की धरती

बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग सुनाते हैं

गम कोस दूर हो जाता है खुशियों के कंवल मुस्काते हैं

सुन के रहट की आवाजें यूं लगे कहीं शहनाई बजे

आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे..

जब चलते हैं इस धरती पे हल ममता अँगड़ाइयाँ लेती है

क्यों ना पूजें इस माटी को जो जीवन का सुख देती है

इस धरती पे जिसने जन्म लिया उसने ही पाया प्यार तेरा यहां अपना पराया कोई नहीं

सब पे मां उपकार तेरा..

गीत का फिल्मांकन दर्शकों को ग्रामीण भारत के एक मोहक से दौर में ले जाता है. हालांकि पानी भरती पनिहारिनें, गोफने से चिड़िया भगाती ग्रामीण युवतियां, सूप से अनाज ओसाते किसान, अतीत की बातें होते जा रहे हैं.

यांत्रिक प्रगति की दौड़ ने दौड़ते बैलों की घंटियों और और पानी उलीचते रहटों की आवाजों को गुजरे जमाने की विषयवस्तु बना दिया. गीत में ऊंची-ऊंची गेहूं की बालियां, मानो सर उठाकर पीएल 480 को जवाब दे रही हों. साथ ही खुशहाली का गीत गाती हुई तो दिखाई ही पड़ती हैं. कुल मिलाकर, यह गीत आत्मगौरव का संदेश दे जाता हैं.

महेंद्र कपूर ने लंबा आलाप लेकर, इस गीत को इतनी खूबसूरती से गाया कि गीत, देशभक्ति गीतों का एक ट्रेडमार्क सा बनकर रह गया. इस गीत के लिए उन्हें पहला नेशनल अवार्ड मिला.

(लेखक PCS अधिकारी हैं और आलेख में उनके निजी विचार हैं)

(Photo: साभार लेखक पेज)

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