By Rahul Singh Shekhawat
अकालियों की BJPसे दूरी हो ही गई है। पंजाब (Punjab) में किसान आंदोलन के मद्देनजर शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने एनडीए से नाता तोड़ लिया। इसके साथ ही उसकी भारतीय जनता पार्टी के साथ दशकों पुरानी दोस्ती भी खत्म हो गई। इस कड़ी में पहले तो हरसिमरत कौर बादल ने मोदी सरकार में मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दिया। फिर दल की कोर कमेटी ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन से अलग होने का फ़ैसला लिया।
किसान आंदोलन की आड़ में अकालियों की BJPसे दूरी !
दरअसल, मोदी सरकार के कृषि सुधार विधेयकों के विरोध में पंजाब-हरियाणा में किसान सड़कों पर उतरे हैं। सूबे में कैप्टन अमरेंद्र सिंह के नेतृत्व में सरकार और कांग्रेस ने संसद में बिलों का विरोध किया। लिहाजा अकाली दल ने किसानों के गुस्से को भांपकर पिछले चुनावों में खिसकी सियासी जमीन बचाने के लिए NDA से अलग होने का दांव चला है। सूबे के सियासी समीकरणों के मद्देनजर NDA में रहते कृषि बिलों का विरोध करना मुश्किल था।
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आप को बता दें कि पहले कांग्रेस ने शिरोमणि अकाली दल को 2017 में सत्ता से बेदखल किया। उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में हौसले पस्त कर दिए। इतना ही नहीं, आम आदमी पार्टी (APP) ने विधानसभा चुनावों में उन्हें तीसरी पायदान पर धकेल डाला। अकाली दल को सरकार में रहते हुए विधानसभा चुनावों में सिर्फ 15 सीटें मिल पाईं। जबकि नई नवेली ‘आप’ 20 विधायकों के साथ सदन में मुख्य विपक्ष की भूमिका में है।
लिहाजा ‘किसान आंदोलन’ तो शिरोमणि अकाली दल के लिए ‘डूबते को तिनके का सहारा’ सरीखा है। पहले उसके लिए पंजाब में कांग्रेस इकलौती चुनौती थी। लेकिन AAP की दस्तक के बाद दोहरी हो गई। चूंकि आम आदमी पार्टी ने कृषि सुधार विधेयकों का संसद में जबर्दस्त विरोध किया। लिहाजा अकालियों के सामने विधानसभा चुनावों की आहट में पंजाब की राजनीति में बड़ी लकीर खींचने की मजबूरी थी।
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अकालियों ने आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तोड़ा रिश्ता !
पहले बतौर मंत्री हरसिमरत कौर का मोदी सरकार से इस्तीफा, फिर NDA से नाता तोड़ना और अब जम्मू-कश्मीर में ‘पंजाबी’ को आधिकारिक भाषा का दर्जा नहीं देने पर एतराज जताना। यह सब शिरोमणि अकाली दल की एक पॉलिटिकल ‘क्रोनोलॉजी’ का हिस्सा है। दरअसल, वह चिर परिचित ‘पंथ’ की राजनीति के साथ किसानों के कंधे पर हाथ रखकर 2022 के चुनावों में लगातार खिसक रही सियासी जमीन बचाने की जुगत में है।
गौरतलब है कि शिअद के शीर्ष नेता प्रकाश सिंह बादल की उम्र 92 साल हो गई है। वह ना सिर्फ सबसे अधिक 5 बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे बल्कि तथाकथित ‘पंजाबियत’ की रक्षा के लिए कमोबेश डेढ़ डेढ़ दशक जेल में रहे। अब दल की बागडोर उनके इकलौते पुत्र और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के हाथों में है। ये कड़वी सच्चाई है कि वह पंजाब की राजनीति में वो रुतबा हासिल नहीं कर पाए जो पिता प्रकाश सिंह का रहा।
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इन तमाम तथ्यों की रोशनी में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा नीत गठबंधन से नाता तोड़ा है। ताकि 2022 के पंजाब चुनावों में दमखम के साथ उतरने के लिए बचाखुचा जनाधार कायम रहे। वैसे किसान आंदोलन तो एक बहाना बना है। वरना मोदी-शाह युग में दोनों दलों के बीच अटल-आडवाणी के दौर वाली गर्माहट भी नहीं बची थी। वजह ये कि मोदी युग में शहरी क्षेत्रों में भाजपा की पैठ मजबूत हुई।
तो BJP भी अकालियों से पीछा छुड़ाने की फिराक में थी !
कहने की जरूरत नहीं है कि अकाली राज में कथित रूप से भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे। जिसके चलते उसकी छवि प्रभावित हुई और जनाधार घटने लगा। पंजाब में स्थानीय स्तर पर भाजपा में महाराष्ट्र की तर्ज पर अकेले राजनीति करने की मांग भी उठने रही है। वैसे भाजपा अकाली दल को कहीं मनाती नजर नहीं आई। जबकि वह पूर्व में बादल की अंगुली पकड़ पंजाब में जनाधार बढ़ाया औऱ गठबंधन सरकार में भागीदार रही।
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लगता है कि BJP ‘आत्मनिर्भर’ होने की फिराक में ही थी। आने वाला वक्त तय करेगा कि गठबंधन टूटने से किस दल को नफा होगा या किसको नुकसान। मुमकिन है कि दोनों दल मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह के प्रति नवजोत सिंह सिद्धू समेत अन्य नेताओं की नाराजगी को अपनी संभावनाओं में तब्दील करने की कोशिशें करें। फिलहाल भाजपा-अकाली दल का गठबंधन टूटना और किसानों का आक्रोश पंजाब स्तर पर कांग्रेस केे लिए अप्रत्यक्ष रूप से फायदेमंद है।
(लेखक जाने माने टेलीविजन पत्रकार हैं)
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