By Indresh Maikhuri
सरदार भगत सिंह का 28 सितंबर 1907 को जन्मदिवस है। 23 मार्च 1931 को वे आजादी और उस आजादी को जो लक्ष्य,उन्होंने तथा उनके साथियों ने घोषित किया था। यानि समाजवाद,उसका सपना अपनी आंखों में लिए 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए।
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भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह के योगदान को डॉ.भगवान दास माहौर ने अपनी पुस्तक “यश की धरोहर” में रेखांकित किया है। डॉ.भगवान दास माहौर उस क्रांतिकारी दल के सदस्य थे, जिसके नेता भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद थे। लाहौर बम कांड में क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही देने वालों को गोली मारने का काम डॉ.भगवान दास माहौर को सौंपा गया था। इस केस में उनकी गिरफ्तारी हुई थी। भारत के सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में भगत सिंह के महत्व पर टिप्पणी करते हुए डॉ.भगवान दास माहौर लिखते हैं कि :
“सशस्त्र क्रांति का बीज धार्मिक क्षेत्र में ही अंकुरित हुआ था। परंतु उसे धार्मिक क्षेत्र से ऊपर उठ कर क्रमशः राष्ट्रीय और समाजवादी आकाश में अपनी प्रगति के रास्ते पर बढ़ना था। क्रांति प्रयास के इस विकास मार्ग में भगत सिंह एक ऐसे व्यक्ति थे,जिसे अंग्रेजी में corner stone (मोड़सूचक पाषाण चिन्ह) कहा जाता है। समय और समाज की आवश्यकताओं ने भगत सिंह को ही माध्यम बना कर उत्तर भारत के संगठित सशस्त्र गुप्त क्रांतिकारियों को समाजवाद की ओर उन्मुख कर दिया तथा क्रांतिकारी कार्यकलाप को धार्मिक मनोभूमि से ऊपर उठाया।
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सरदार भगत सिंह ने लगाए इंकलाब जिंदाबाद के नारे
उत्तर भारत का गुप्त क्रांति प्रयास अभी तक इटली के मैजिनी,गैरीबाल्डी और आयरलैंड के सिंफिन के मध्यमवर्गीय नेताओं के आदर्श से अनुप्रमाणित था। अब भगत सिंह के माध्यम से ही उसने रूसी क्रांति और मार्क्स-लेनिन के समाजवादी आदर्श के प्रभावों को ग्रहण किया। भगत सिंह के ही माध्यम से ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ मंत्रों के स्थान पर भारतीय गुप्त सशस्त्र क्रांति प्रयास ने ‘long live revolution’ (क्रांति चिरंजीवी हो), इंकलाब जिंदाबाद, ‘down with imperialism’ (साम्राज्यवाद का नाश हो) आदि नारे लगाए और जहां क्रांतिकारी लोग पुलिस की यंत्रणाओं और मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए शरीर की नश्वरता और आत्मा के नित्यत्व का निदिध्यासन,पद्मासन लगाए गीता पाठ करते हुए नजर आते थे,वहाँ वे अब मार्क्स की ‘कैपिटल’ का स्वाध्याय करते नजर आए।
सशस्त्र क्रांति बने नायक
दिल्ली में लेजिसलेटिव असेम्बली में बहरे कानों को समय का गुरु गंभीर गर्जन सुनाने के लिए भगत सिंह ने जो बम फेंका या भारतीय राष्ट्रवाद के अपमान का प्रतिकार करने के लिए पंजाब-केसरी लाला लाजपत राय को लाठियों से पीटने वाले सांडर्स का जो वध किया। इसी प्रकार के साहस और आत्मबलिदान के जितने कार्य भगत सिंह ने किए उनका महत्व उनके अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए महान है। उनके ये कार्य सशस्त्र क्रांति प्रयास के विकास-आकाश के चमकते हुए नक्षत्र हैं। परंतु भगत सिंह की विशेष क्रांतिकारी देन यही है कि उनके समय से क्रांतिकारियों का आदर्श समाजवादोन्मुख हो गया। उनका मानसिक धरातल भी परलोकापेक्षी धार्मिक होने के स्थान पर इहलोकापेक्षी सामाजिक ही विशेषतः हो गया।
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काकोरी युग के श्री पं रामप्रसाद बिस्मिल, श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल,श्री जोगेशचन्द्र चटर्जी आदि का The Hindustan Republican Association (भारतीय प्रजातंत्र संघ) भगत सिंह और उनके साथियों के प्रभाव से The Hindustan Socialist Republican Army (हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना) के रूप में विकसित हुआ।
यहां तुरंत ही यह बात स्पष्टतया कह देनी चाहिए कि कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि भगत सिंह समाजवाद के अच्छे पंडित थे। कहने का अभिप्राय इतना ही है कि भगत सिंह और उनके साथी श्री शिव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा आदि के द्वारा हम लोगों के क्रांतिकारी दल ने समाजवाद की ओर अपना मार्ग टटोल कर बढ़ना शुरू किया था।”
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भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को जब अंग्रेजों ने फांसी की सजा सुना दी तो उन्होंने पंजाब के गवर्नर को एक पत्र लिखा। फांसी के तीन दिन पहले 20 मार्च 1931 को लिखे पत्र में इन क्रांतिकारियों ने लिखा कि उन्हें अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए फांसी दी जा रही है। उन्होंने लिखा कि अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप को वे स्वीकार करते हैं और वे मांग करते हैं कि उन्हें युद्धबंदी मानते हुए फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।
इस पत्र में भगतसिंह लिखते हैं “ हम यह कहना चाहते हैं युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूंजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय ही हों,उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है………….। हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाये कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाये।
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चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा। यह आपकी इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहें चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी। इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा। बहुत सम्भव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रान्ति सपन्न नहीं हो जाती और मानव सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रापात नहीं हो जाता।”
एक ऐसे समय में जब यह लूट नित नए रूप धर कर प्रकट हो रही है, तब फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद, किसानों-मजदूरों की लूट के खिलाफ युद्ध में फांसी के बजाय खुद को गोली से उड़ाने की मांग करने वाले अपने उस क्रांतिकारी पुरखे को याद करें और इस युद्ध को फैसलाकुन मुकाम तक पहुंचाएं।
(लेखक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और आलेख में उनके निजी विचार हैं)
(Photo: साभार FB पेज/इंद्रेश मैखुरी)
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