By Rahul Singh Shekhawat
(Will Mallikarjun revive Congress) मल्लिकार्जुन खड़गे ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की कमान संभाल ली। जिससे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के इस्तीफे के बाद शुरू हुआ नेतृत्व संकट खत्म हो गया है। पार्टी की बागडोर करीब 24 साल बाद गैर गांधी परिवार नेता के हाथों में होगी। कोई 51 साल बाद कांग्रेस का नेतृत्व एक दलित व्यक्ति ने संभाला है। उनके सामने 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस को ‘हार की हैट्रिक’ से बचाने की चुनौती होगी।
कांग्रेस की सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकारें हैं। इसके अलावा बिहार, झारखंड और तमिलनाडू सूबे की गठबंधन सरकार में शामिल है। जहां राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट एक दूसरे को फूटे मुंह भी नहीं सुहाते। वहीं, छत्तीसगढ़ में सीएम भूपेश बघेल और मंत्री टीएस देव के बीच खींची तलवारें खींची हैं। दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की अदावत में मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार गिर गई।
कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में खड़गे को 7867 और उनके प्रतिद्वंदी शशि थरूर को 1072 वोट मिले। शरद पवार, राजेश पायलट और जितेंद्र प्रसाद सरीखे नेता भी एक हजार पार का आंकड़ा पार नहीं कर पाए थे। लिहाजा हार के बावजूद थरूर एक अलग छाप छोड़ने में सफल रहे। सबकी नजरें इस पर होंगी कि खड़गे भविष्य में उनका कैसे इस्तेमाल करेंगे? वजह ये कि थरूर के गृह राज्य केरला के नेता वेणुगोपाल राहुल गांधी के बेहद करीबी हैं।
Will Mallikarjun revive Congress
आगामी लोकसभा चुनावों से पहले कमोबेश एक दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। पद संभालते ही खड़गे की हिमाचल प्रदेश और गुजरात में अग्निपरीक्षा है। हिमाचल में बीजेपी की सरकार है। वहीं गुजरात में भाजपा बीते 24 सालों से काबिज है। इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस – बीजेपी के बीच परंपरागत मुकाबला रहता है। एक के बाद एक तीन दर्जन विधानसभा चुनावों में पराजय मिली। उस सिलसिले को तोड़ने का यह बेहतरीन पहला मौका होगा।
2023 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और कांग्रेस शासित राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव होंगे। मल्लिकार्जुन का भाजपा शासित गृह राज्य कर्नाटक अहम है। जहां प्रदेश अध्यक्ष डी शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सीतारमैया में छत्तीस का आंकड़ा है। लोकसभा चुनावों से पहले चारों बड़े राज्य कांग्रेस के लिए बेहद अहम हैं। जहां कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला होगा। लेकिन सत्ता वापसी सुनिश्चित तभी मुमकिन है जबकि खड़गे संगठन दुरस्त करके गुटबाजी पर लगाम कसे।
गैर गांधी अध्यक्ष का ‘गांधी परिवार’ से सामंजस्य!
राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में हार की जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद छोड़ा। उन्होंने गांधी परिवार के अलावा नया नेता चुनने की मंशा जाहिर की। इसके बावजूद अस्वस्थ सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया। राहुल अध्यक्ष नहीं बनने के अपने संकल्प पर कायम रहे। फिलहाल वह कथित ‘नफरत की सियासत’, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ 3750 किमी. ‘भारत जोड़ो यात्रा‘ कर रहे हैं। कन्याकुमारी से श्रीनगर (कश्मीर) के बीच उनकी यात्रा 12 राज्यों से गुजर रही है।
जिसके जरिए राहुल नए अवतार में मोदी की ’56 इंची’ छवि को जनमानस के बीच निर्णायक कड़ी चुनौती दे रहे हैं। बिना पद आगे उनकी और सोनिया गांधी की भूमिका क्या होगी? हालांकि दोनों ने कहा कि खड़गे तय करेंगे। उधर प्रियंका गांधी वाड्रा का भी सीधा हस्तक्षेप रहता है। गांधी परिवार कांग्रेस का मर्ज और दवाई दोनों रहा है। उसके ‘रिमोट कंट्रोल’ का खुद पर ठप्पा लगे बिना खड़गे पार्टी का नेतृत्व कर पाएंगे!
क्या खड़गे दलितों को कांग्रेस से जोड़ने में कामयाब होंगे?
गौरतलब है कि दलित समुदाय के बाबू जगजीवन राम 1970 से 71 तक अध्यक्ष रहे। उनकी बेटी मीरा कुमार को भी लोकसभा स्पीकर बनाया गया। महाराष्ट्र में सुशील कुमार शिंदे और पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री बनाए गए। मुकुल वासनिक केंद्र की राजनीति में सक्रिय हैं। इस फेहरिस्त में हरियाणा की पूर्व पीसीसी चीफ कुमारी शैलजा समेत अन्य नेता शामिल हैं। लेकिन कोई एक नेता ‘पॉलिटिकल रिटर्न’ नहीं दे सका। बाबू जगजीवन सरीखा बड़े जनाधार वाला नेता नहीं उभर पाया।
जबकि 90 के दशक में काशीराम, मायावती और रामविलास पासवान दलित राजनीति की धुरी बनते गए। बेशक खड़गे की पार्टी और कर्नाटक में एक बड़े दलित नेता की पहचान है। लेकिन उनकी राष्ट्रीय फलक पर अपने समुदाय में अपीलिंग इमेज कभी नहीं रही। पासवान तो अब जीवित नहीं रहे और अब मायावती कथित तौर पर बीजेपी की तरफ झुंकी हैं। इन हालात में खड़गे परंपरागत दलित वर्ग का भरोसा जीत पाएंगे?
उत्तर प्रदेश और बिहार में ‘मंडल कमंडल’ की राजनीति ने कांग्रेस को हाशिए पर ला दिया। सपा बसपा, राजद जेडीयू जातियों के आधार पर खड़ी हो गईं। वहीं भाजपा धार्मिक एजेंडे के सहारे न सिर्फ हिंदी बेल्ट बल्कि पूर्वोत्तर में भी चुनाव दर चुनाव मजबूत होती गई। दक्षिण भारतीय खड़गे को उत्तर प्रदेश और बिहार में पार्टी के पुनर्जीवन के लिए संजीवनी तलाश करनी होगी।
सूपड़ा साफ राज्यों में कांग्रेस को खड़ा करने की बड़ी चुनौती!
डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में तेलांगना का गठन ‘सिर मुंडाते ओले पड़ने’ सरीखा साबित हुआ। जहां आंध्र प्रदेश के विभाजन से उभरे जनाक्रोश में कांग्रेस स्वाह हुई। वहीं तेलांगना में टीआरएस की सरकार बनी।। पश्चिम बंगाल में पिछले चुनाव में सूपड़ा साफ हो गया।
उधर, बीते 90 के दशक में कांग्रेस के हाथों से फिसला उड़ीसा आज भी पहुंच से बाहर है। वजह ये कि पूर्व मुख्यमंत्री जे बी पटनायक की मौत के बाद नेतृत्व नहीं उभर पाया। पूर्वात्तर के त्रिपुरा में अकल्पनीय बहुमत और असम में भाजपा सरकार रिपीट हो जाना कांग्रेस का दायरा सिकुड़ने का संकेत देता है।
सोनिया का विदेशी मूल का मुद्दा उछालकर शरद पवार ने अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी NCP बनाई। कांग्रेस को महाराष्ट्र में उससे कम सीटें जीत पाई। ममता बैनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस और जगन मोहन रेड्डी ने वाई एस आर कांग्रेस गठित की। आंध्र प्रदेश और बंगाल असेंबली में कांग्रेस का एक भी सदस्य नहीं है। अनुभवी खड़गे विपक्ष को साधने के साथ ही कांग्रेस से टूटी शाखाओं को जोड़ पाएंगे?
खत्म होगी ओल्ड गार्ड v/s यंग की जंग?
‘उदयपुर चिंतन शिविर’ में 50 साल से कम उम्र के नेताओं को आधा प्रतिनिधित्व देने का संकल्प हुआ। बेशक यंग वोटर्स को पार्टी से जोड़ने के लिए नए चेहरों की दरकार है। लेकिन पैतृक विरासत के दम पर कांग्रेस में आगे बढ़े युवा अधीर नजर आए। सचिन पायलट की बगावत एक उदाहरण है। आरपीएन सिंह, जतिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुष्मिता देव समेत ‘सेकेंड लाईन’ नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं। जबकि जमीनी कार्यकर्ताओं की बलि की कीमत पर इन्हें काफी कुछ मिला। खास बात ये है कि सभी राहुल गांधी के करीबी थे।
कांग्रेस के कथित रणनीतिकारों ने युवाओं की लांचिंग में पार्टी को ही हवन कुंड में डालने का काम किया। ताजातरीन राजस्थान का उदाहरण है जहां पायलट के ‘टेक ऑफ’ की कोशिशें नाकाम हुई। बतौर पर्यवेक्षक खड़गे की मौजूदगी में गहलोत गुट ने विधायक दल बैठक का बहिष्कार किया। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू के चक्कर में कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ को खोया। उत्तराखंड में हरीश रावत को साइड लाईन करने की जल्दबाजी भारी पड़ी। कांग्रेस सरकार बनने की संभावनाएं खत्म कर डाली।
भले ही मोदी के ‘तिलिस्मी दौर’ में युवा हताश हो लेकिन फिर भी उनके साथ है। कमजोर संगठन और संवादहीनता से जनमानस में कांग्रेस की विश्वसनीयता लगातार घटती गई। बेशक सोनिया गांधी ने राजनीतिक चातुर्य से G-23 को खत्म कर दिया। क्या मल्लिकार्जुन नेताओं के पार्टी छोड़ने पर विराम लगा पाएंगे?
(लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार हैं)
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