Editor’s Note: देश के मशहूर पार्श्व गायक एस पी बालासुब्रमण्यम का निधन हो गया है। उन्होंने तेलगू भाषी होने के बावजूद मातृभाषा के अलावा कन्नड़, तमिल, मलयालम, हिंदी और न जाने कितनी ही भाषाओं में गानों को अपनी आवाज दी। S P को 80 के दशक में पर्दे पर आई कमल हसन की ‘एक दूजे के लिए’ में ‘तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अंजाना’ के लिए फ़िल्म फेयर अवार्ड मिला। उन्होंने सलमान के लिए कई मशहूर गाने गाए थे।
By Amit Srivastava
उनकी आवाज बहुत भारी थी वो। बहुत ही भारी। तमाम आवाज़ों के बीच जगह बनाकर भीतर जम गई। यूं कि जैसे आलती-पालथी मारे बैठ ही गई हो। बहुत मशक्कत से उठाने से भी न उठे। खासकर उस कंठ के लिए जो बहुत कोमल से कठोरता की तरफ बढ़ते कदम बहक जाने से कर्कश हो उठा हो। उम्र क्या थी मेरी उस साल?
ठीक-ठीक याद है मुझे 2 मार्च 1991 की वो शाम। (जाने ये साल हमारे जीवन में इतनी हलचलें लेकर क्यों आया होगा भला कि जिसके झटके हम आज भी महसूस कर रहे हैं।) किसी के जाने के बाद उस कैसेट को दुबारा उलटा-पलटा-सुना। वो कैसेट जिसकी आमद घर में तकरीबन एक बरस पहले हो चुकी थी। 90 के सर्दियों के दिन किसी दोपहर भाई के एक दोस्त ये कहते हुए कि `लाया तो बड़ी उम्मीद से था पर… लो आप लोग भी सुनो’ हमें थमा गए। उन दिनों सपने साझा करने का सामान हुआ करता था कैसेट।
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हमने, मतलब हम सबने सुना और रख दिया। पहली बार में हमें अजीब लगा संगीत। अब एक साल बाद एचएमवी का वो कैसेट दुबारा निकला। तब वाइरल होंने में वक्त लगता था, हाँ इतना ज़रूर था कि इस बीच फिल्म हिट हो चुकी थी, लड़के अपनी नुकीली नाक को और नुकीला कर सलमान खान होने की फील लेने लगे थे और लड़कियां `दोस्ती की है तो निभानी ही पड़ेगी’ बोलने के लिए एक अदद `दोस्त’ ढूंढना शुरू कर चुकी थीं।
गाने हिट हो चुके थे। ऐसा नहीं था कि मैंने न सुना हो लेकिन उस दिन भाई के जन्मदिन की शाम, भाई के ही उस दोस्त ने जैसे मेरे अंदर सितार के किसी कसे हुए तार पर उँगलियाँ रख दी थीं और एकदम से कोई झाला बजने लगा था। बहुत सान्द्र सुरों, तालों का, कई राग-रागनियों का झाला। वैसे भाई साहब ने बहुत बुरा गाया था पर मुझे आँखें बंद कर ऐसी जगह पहुंचा दिया कि कई राज एकदम से खुल गए।
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मुझपर ये राज खुला, कि ये वही आवाज़ थी, जिसने कई-कई सालों बाद ये समझाया कि मुझे समंदर से इश्क़ क्यों है! क्यों ठुड्डी के तिल से मैं एक नमकीन राब्ता रखता हूँ! क्यों आज भी साउथ का वो मूंछों वाला हीरो, अपने घने बालों और उतनी ही घनी आवाज़ में हिन्दी बोलने की कोशिश करता, इकलौता हीरो बन गया जिसकी फिल्मों का मुझे इंतज़ार रहता था!
राज ये भी खुला, कि कई बरस पहले लालजी टॉकीज़ से अपने होश की पहली फिल्म `एक दूजे के लिए’ देखकर लौटते दसियों बार तो बासु और सपना का नाम पूछते लौटा था। उस रात वापसी में रिक्शा नहीं मिला था। अक्सर 9 बजे तक इधर आने पर रिक्शे को लौटानी सवारी नहीं मिलती थी। मैं गोद में आ गया था पापा के। मेरा एक जूता निकल गया था। पीछे चलते किसी ने मज़ाक में फिल्म का नाम `एक जूते के लिए’ कहा तो क्यों मैं इतना नाराज़ हो गया था।
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दरअसल ये उस आवाज़ से इश्क़ की शुरुआत थी!
खूब ऊर्जावान दिन थे। खूब सपनों से भरी रातें। सपने और बारिश। बारिश और काला टेप रिकॉर्डर। काला टेप रिकॉर्डर और बालू, यानि बाला, यानि एसपीबी, यानि एसपी बाला सुब्रामनियम की कड़कती हुई आवाज़ में किसी काल्पनिक रोज़ा के लिए कलपते, `रो’ के बाद ख़ूब इंतज़ार के बाद गिरे `ज़ा’ के अनुनाद पर मैं भी हाई ऑक्टेव पर चढ़ जाता। मै उस वक्त समझ के उस पायदान पर था जब उत्साह के आगे सब फीका होता है। टीन एज। मुझे इश्क़ में रुकना, रुक के चलना क्या होता है, मालूम न था। ये और बात है कि सफेद कमीज़ और ब्लू डेनिम जीन मेरे चाहे जाने वाली चीज़ों में दाख़िल हो चुकी थी, आज भी है, और मैं साँसों की गिनती शुरू कर चुका था।
पहली दफा गिना था। बस एक बार| `ला ला ला ला…’ उसके बाद सांस के खत्म होने से पहले `साथिया तूने क्या किया’ कह देना होता था। कोई कारीगरी नहीं थी। उस आवाज़ से इश्क़ का कमाल था कि कभी गलत ताल पर नहीं टूटी सांस। सांस का इम्तेहान लेने से ज़्यादा ये इस बात का इम्तेहान लेने वाला गाना था, कि एक ही लाइन में स्केल कैसे चेंज करते हैं। बहन के साथ जुगलबन्दी थी। मैं पूरा मुंह खोल कर गाता था। बेहद बेसुरे होने के बाद भी अंताक्षरी में इस आवाज़ की नकल करना जिगर का काम था।
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मैं अपने गाने के बारे में क्यों बोल रहा हूँ?
दरअसल ये आवाज़ आपसे बात करती है। एकतरफा बोलती नहीं कि जिसे बस सुनना पड़े। आपको बोलना भी पड़ता है। ऐसा भी नहीं लगता कि दूर कहीं किसी जगह गाना चल रहा हो। वो बिलकुल आपके पास, आपके सामने, आपके लिए गाते महसूस होते हैं। मुझे ये मुख़ातिब होना अच्छा लगता है। साथ बैठ कर गाना और आपके रिएक्शन पर कुहनियां चुभा कर बोलना- `ओ हो अपड़िया!’ बाला उसी कसे हुए मीटर में अपने शब्द डाल देते हैं जिसमें लता या आशा या रफी मुरकियाँ डालते हैं।
क्लासिकल म्यूज़िक में ट्रेनिंग के बिना ही गणयोगी पंचाक्षर गवाई के जीवन पर बनी कन्नड़ फ़िल्म या शंकरभरणं जैसी संगीत आधारित तेलगू फिल्म में गाना ही उनके हुनर का प्रमाण है। ये ज़रूरी नहीं यहां बताना कि चालीस हज़ार से ज़्यादा गाने गा चके इस गायक का नाम गिनीज़ बुक में भी दर्ज है। शायद अब तक। एक ही दिन में सबसे ज़्यादा गानों की रिकॉर्डिंग का। तेलगू भाषी होने के बाद भी अपनी मातृभाषा के अलावा कन्नड़, तमिल, मलयालम, हिंदी और न जाने कितनी ही भाषाओं में गाने वाला ये शख्स ए आर रहमान और इलईराजा जैसे दिगज्ज संगीतकारों की पहली पसंद है। क्यों?
उसकी आवाज़ में एक ताजगी है, एक ऊष्मा है, एक किक है, एक साफगोई है जो पुराने चावल की खुशबू की तरह पूरे घर में फैल जाती है| एसपीबी इयरफोन से नहीं, स्पीकर में सुने जाने वाले सिंगर हैं|
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इयरफोन पर सुनी जाने वाली आज की गायकी में एक हठी हस्क है, कोशिश करके डाला गया (जो ज़ाहिरा तौर पर आपके कान पकड़ सकें) एक नशा है। एक `र’ है जो दन्त्य की जगह मूर्धन्य बना दिया गया है, या कह सकते हैं कि जाने कहाँ से उसपर एक नुक्ता लग गया है। एक ठूंसी हुई लापरवाही है, ऐसा लगता है गायक इश्क़ नहीं अहसान कर रहा हो। इनके बरक्स कुछ पुराने गायक हैं, गाने हैं हमारे पास। बाला हैं हमारे पास। उनका `तेरे मेरे बीच में’ है हमारे पास। अब देखिये न, इस `तेरे मेरे बीच में’ में जो `रे’ है वो इश्क़ के उत्साह से भरा हुआ है, इश्क़ को लेकर कोई नुक्ता-चीं नहीं। `ऐसे जैसे कोई हो.. ओ…’ इतनी दस्तक है इनके उच्चारण में, कि ये शब्द आपके कानों से होते हुए कहीं अंदर छपते जाते हैं। ऐसा लगता है कि खुद बालू आपके दिल के किसी सफ़हे को खोले बैठे हों और आवाज़ की मुहर से अपना नाम छापते जाते हों। और जब बाला `अनजा….ना’ पर पहुँचते हैं सबकुछ इतना वृहद कितना, विशाल लगने लगता है। ऐसा लगता है कि आकाश अपनी दोनों बाहें खोलकर, उठते हुए समंदर को थाम लेता हो, लहरों का सिर अपनी गोद में धर लेता हो। फिर दोनों साथ झुके पढ़ते हों आपके दिल पर लिखी इबारत।
उसे कभी उदास नहीं सुना। उदासी में भी एक ख़ास किस्म की ठसक थी। एटीट्यूड था। त्रिभंग था। `बाकी बेकार है’ के बाद भी `है तो है!’ लिखना छूट गया था जावेद साहब का। बाला ने अपनी गायकी से डाल दिया इस गाने में। प्रेम और प्रेम में प्रेम के आधार को ही न्यौछावर कर देने वाली गर्वित पीड़ा के साथ `सच मेरे यार है, बस वही प्यार है’ कहते हुए बालू या मूंछों वाला वो साउथ इन्डियन आपके कांधे पर सिर रख देता है। आप उससे सहानुभूति नहीं दिखाते, उसकी ठुड्डी पकड़ चेहरा उठाकर सिर हिलाते हैं बस! देखा आपने? माथा ऊंचा हो जाता है उस वक्त आपका।
ये आवाज़ मुझे कुरेदती है, जैसे देर तक तापी हुई आग की राख से कोई दबे हुए आलू कुरेदता हो। मैं आलू के छिलने का भी इंतज़ार नहीं करता। मुझे वैसा ही समूचा मुंह मे डालना होता है। फिर देर तक मुंह खुला रह जाता है। इकट्ठा हुई गर्म भाप को बाहर धकेलने में बहुत सांसे खर्च हो जाती हैं। मगर यही भाप है जो मेरी आवाज से मिलाती है मुझे। मैं मीटर के बाहर चला जाता हूँ, सुर…ताल… लय की मलमली बंदिशों से छूटकर मुझे मेरे होने का अहसास दिलाती है।
बहुत ज़्यादा नहीं, पर ये तो कह ही सकता हूँ कि जब इस दानेदार आवाज़ के मनके मेरे कानों पर गिरते हैं तो कैसी कैफियत होती है। मेरा कंठ थोड़ा सा दब जाता है। अगर मैं गायक होता तो शायद ‘सा’ खरज पर अटका हुआ सा दिखता जबकि होता ये है, कि मैं अपने ही कहीं भीतर उतरता जाता हूँ। एक वक्त ऐसा आता है जब मुझे सिर्फ ये आवाज़ और अपनी सांस का अहसास रह जाता है। मैं जानता तो नहीं पर जाने क्यों लगता है, कि उस वक्त मेरे चेहरे पर किसी पुराने ख्वाब की ताबीर उभरती होगी। कोई पढ़ सके तो बताए। क्या ये लिक्खा आता है कि मुझे मरने से पहले इस एक आवाज़ को रू-ब-रू सुनना है?
(लेखक IPS अधिकारी हैं और आलेख में उनके निजी विचार हैं)
(Photo: एस पी बालासुब्रमण्यम/FB पेज)
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