News Front Live, New Delhi
किसान आंदोलन के 11महीने पूरे हो गए हैं। कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ छिड़े किसान आंदोलन (Farmers Protest) से न तो केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार का ही कलेजा पसीजा और न ही संयुक्त किसान मोर्चा अपनी मांगों से पीछे हटा। किसान संगठन तीन कथित काले कानून वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी सुनिश्चित करने की अपनी मांग पर कायम हैं। जिसे केंद्र सरकार मानने को तैयार नहीं है।
सर्दी, गर्मी और बरसात में खुले आसमान के तले बदस्तूर जारी रहे इस आंदोलन के दौरान सैंकड़ों किसानों की मौत हो चुकी है। लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचले जाने की हालिया घटना ने आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया है। जिसके बाद भाजपा (BJP) सांसद वरुण गांधी ने पार्टी स्टैंड से इतर जांच की मांग की। उनके पहले गर्वनर सत्यपाल मलिक किसानों की मांगों को जायज ठहराते हुए, केंद्र से जिद छोड़ने की सार्वजानिक रूप बात कह चुके हैं।
किसान आंदोलन के 11महीने पूरे, PM की कॉल नहीं लगी !
कहने की जरूरत नहीं है कि 24 जनवरी को केंद्र और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच आखिरी बैठक हुई थी। उस दौरान केंद्रीय कृषि मंत्री ने दावा किया था कि प्रधानमंत्री और किसान संगठनों के बीच में एक फोन कॉल की दूरी है। लेकिन किसान आंदोलन के 11महीने पूरे होने के बाद भी उस कथित कॉल की घंटी सुनाई नहीं दी। फिर बीते 26 जनवरी को ‘ट्रैक्टर परेड’ के दौरान एक लालकिले पर तिरंगे के नीचे फहराने का वाकया हुआ। जिसके बाद दोनों पक्षों के बीच डेडलॉक हो गया।
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यह स्थिति आज तक बदस्तूर कायम है। हालांकि मोर्चा कई बार कह चुका है कि अगर सरकार बुलाएगी तो वह बातचीत करने के लिए तैयार है। लेकिन सवाल ये उठता है कि इसकी पहल कौन करेगा। सरकार की कथित हठधर्मिता के चलते अवसाद में कई किसान आत्महत्या भी कर चुके हैं। संयुक्त मोर्चा के मुताबिक आंदोलन कर रहे कमोबेश 700 किसानों की मौतें हुईं।
सुलह की बजाय आंदोलन बदनाम करने पर जोर !
सत्ताधारी भाजपा का शुरुआत से ही सुलह की बजाय पूरा जोर आंदोलन को बदनाम करके तोड़ने पर रहा। पहले इसे पंजाब के व्यापारियों का आंदोलन बताया गया। हरियाणा में फैलने के बाद इसको खालिस्तान से जोड़ दिया गया था। बीते गणतंत्र दिवस के रोज लालकिले पर एक धार्मिक झंडा फहराने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। जिसकी संयुक्त किसान मोर्चा ने निंदा करते हुए उसका विरोध किया।
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लेकिन सत्ता पक्ष ने उसकी आड़ में आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। देखते ही देखते जनमानस की किसानों के प्रति सहानुभूति खत्म होती नजर आई। कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रवादी जमात के आईटी सेल ने कथित तौर पर दिल्ली पुलिस लट्ठ बजाओ सरीखे हैश टैग ट्रेंड कराए। ऐसा लग रहा था कि एक सुनियोजित दिखने वाली उस घटना से किसान आंदोलन अकाल मौत मर जाएगा।
इस कड़ी में भानू प्रताप सिंह और बीएम सिंह के नेतृत्व वाले संगठन संयुक्त किसान मोर्चा से अलग हो गए थे। आंदोलन को मरता देख योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों के तंबू उखाड़कर राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने की तैयारियां शुरू कर दीं। उस बीच टिकैत के आंसू छलक गए थे। उनकी भावुक अपील ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन में नई जान फूंकने का काम किया।
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इसलिए कर रहे हैं किसान आंदोलन !
ग़ौरतलब है कि संयुक्त किसान मोर्चा केंद्र के 3 कृषि क़ानूनों के खिलाफ है। जिनमें कृषि उपज व्यापार एवं सरलीकरण, कृषक कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा करार अधिनियम और आवश्यक वस्तु (संसोधन) एक्ट शामिल हैं। इस कड़ी में किसान पिछले साल 26 नवंबर से हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से लगे दिल्ली बॉर्डर NCR समेत अन्य स्थानों पर डेरा डाले हैं। इसके अलावा देशव्यापी बंद, रेलरोको आंदोलन, चक्का जाम, ज्ञापन देने और रैलियों का आयोजन किया जा चुका है।
साफ तौर पर मोदी सरकार किसान आंदोलन से असहज तो नजर तो आ रही है। लेकिन प्रचंड बहुमत के कथित दंभ में मांगे मानकर कमजोर नहीं दिखना चाहती है। साथ ही कतिपय उद्योग घरानों के प्रति कमिटमेंट की चर्चा भी आम है। जिसके मद्देनजर किसानों को फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के खत्म होने की आशंका है। इसलिए संयुक्त किसान मोर्चा कॉरपोरेट की मनमानी रोकने को उसकी कानूनन गारंटी चाहता है। साथ ही, उक्त तीनों क़ानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने लगाई क़ानूनों के अमल पर रोक !
गौरतलब है की पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश (CJI) एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल करने पर स्टे लगा दिया था। उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने सरकार एवं किसानों के बीच बने गतिरोध के समाधान के लिए एक समिति गठित की। उसने बतौर सदस्य भूपिंदर सिंह मान, प्रमोद जोशी, अशोक गुलाटी और अनिल धनवत के नाम सुझाए। जिनमें मान खुद समिति के सदस्य पद से हट गए थे।
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बोबडे ने कहा था कि जो सचमुच समस्या का समाधान चाहते हैं वो वकील के जरिये कमेटी के पास जा सकते हैं।गौरतलब है कि तीनों कानून वापस लेने की मांग पर कायम संयुक्त किसान मोर्चा कमेटी से बातचीत से इंकार कर दिया था। उधर, कृषि मंत्री ने 10वे राउंड की बैठक में किसान नेताओं को डेढ़ साल कृषि कानून होल्ड पर रखने का प्रस्ताव दिया था।
किसान आंदोलन भटक तो नहीं गया !
भारत में कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ चल रहा गैर राजनैतिक आंदोलन एकदम अनूठा है। जिसकी बागडोर राजनीतिक दल नहीं बल्कि किसान संगठनों के हाथों में है। विपक्षी दलों के नेता धरने में तो पहुंचे लेकिन उन्हें मंच नहीं दिया गया। हालांकि मोर्चा ने पश्चिम बंगाल के चुनावों में भाजपा के विरोध रैली जरूर की। जिसके चलते सत्ताधारी भाजपा ने संयुक्त मोर्चा पर आंदोलन के नाम पर राजनीति करने की तोहमत लगाई।
दिल्ली बॉर्डर में धरना स्थल पर निहंग की एक व्यक्ति की नृशंस हत्या करने का वाकया घटा। उसके पहले एक महिला के साथ कथित तौर पर बलात्कार के आरोप लगे थे। आंदोलन के थिंक टैंक योगेंद्र यादव को एक महीने के लिए सस्पेंड कर दिया गया है। वह लखीमपुर खीरी में कुचले किसानों के साथ ही मारे गए भाजपा कार्यकर्ता के घर जाकर अफसोस जताने गए थे। सवाल उठता है कि आंदोलन अपने उद्देश्यों से भटक तो नहीं गया।
एक दूसरी तस्वीर यह भी है कि भाजपा सांसद वरुण गांधी ने कहा कि किसान भी भारत के नागरिक हैं। उन्होंने लखीमपुर खीरी में कुचलने की पार्टी स्टैंड से इतर न्यायिक जांच की मांग उठाई। गर्वनर सत्यपाल मलिक किसानों की मांगों को जायज ठहराते हुए, केंद्र से जिद छोड़ने की सार्वजानिक रूप बात कह चुके हैं। उनके पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह भी केंद्र से किसानों के दर्द को समझने की ताकीद कर चुके हैं। अब ये देखना होगा कि मोदी सरकार कब और कैसे किसान आंदोलन खत्म करने के लिए सिरे से आगे बढ़ेगी।
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